2006 मुंबई ट्रेन विस्फोट:19 साल बाद इंसाफ... या सिस्टम की शर्मनाक देरी ?
11 जुलाई 2006, लोग रोज़ की तरह अपने-अपने ऑफिस से थक हारकर घर लौट रहे थे। मुंबई की लोकल ट्रेनें हमेशा की तरह खचाखच भरी थीं। किसी ने नहीं सोचा था कि ये सफर बहुतों के लिए आखिरी साबित होगा। ठीक शाम के 6:24 बजे से लेकर 6:35 तक, यानी महज़ 11 मिनट के अंदर, मुंबई की सात अलग-अलग लोकल ट्रेनों में सिलसिलेवार धमाके हुए। खार रोड, बांद्रा, जोगेश्वरी, माहिम, माटुंगा, बोरीवली और मीरारोड हर जगह का नज़ारा एक जैसा था खून, चीखें, लाशें। इन धमाकों में 187 लोग मारे गए और 800 से ज़्यादा ज़ख्मी हुए। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि ये अचानक क्या हो गया। शुरुआत में अफरा-तफरी मच गई। लोगों ने सोचा गैस सिलेंडर फटा है या कोई हादसा हुआ है। लेकिन धीरे-धीरे साफ़ होने लगा कि ये एक प्लान किया गया आतंकी हमला था। ट्रेन के डिब्बों में प्रेशर कुकर बम रखे गए थे। प्रेशर कूकर बॉम यानी खाना बनाने वाले प्रेशर कुकर में अगर बारूद, लोहे की कीलें, बॉल बेयरिंग और डेटोनेटर भर दिए जाएं, तो वो एक जानलेवा हथियार बन सकता है। इसका ढक्कन कस कर बंद होता है, जिससे अंदर प्रेशर जमा होता है। टाइमर या मोबाइल डिवाइस से जुड़ा डेटोनेटर जैसे ही एक्टिवेट होता है, प्रेशर कूकर फटता है और लोहे की कीलें चारों तरफ़ गोली की रफ्तार से उड़ती हैं। इन बमों को बड़ी ही चालाकी से लोकल ट्रेनों के डिब्बों में रखा गया था। और टाइमर ऐसे सेट किए गए थे कि एक के बाद एक धमाके होते जाएं। पहला धमाका हुआ, दूसरा, फिर तीसरा और एक के बाद एक सात धमाके हुए। ये किसी एक इंसान का काम नहीं हो सकता था। ये एक बड़ी आतंकी साजिश लग रही थी। देशभर में हड़कंप मच गया। महाराष्ट्र सरकार पर दबाव बढ़ा कि दोषियों को जल्द से जल्द पकड़ा जाए।
मुंबई ट्रेन विस्फोट में 2015 में मकोका कोर्ट ने 13 में से 12 आरोपियों को दोषी पाया
जांच शुरू हुई, पुलिस और ATS यानी एंटी टेररिज़्म स्क्वॉड को जगह-जगह से “खुफिया सूचना” मिलने लगी कि धमाकों में ‘स्थानीय मुस्लिम लड़के’ शामिल हो सकते हैं। और फिर शुरू हुआ एक सिलसिला छापेमारी, गिरफ्तारियां और कन्फेशन के नाम पर ज़बरदस्ती। कहा गया कि ये लड़के ‘Students Islamic Movement of India’ यानी SIMI और Indian Mujahideen जैसे संगठनों से जुड़े हुए हैं। कई लोगों को अलग-अलग शहरों से पकड़ा गया। उस वक़्त कोई ये सवाल नहीं पूछ रहा था कि सबूत क्या है? सबूतों के नाम पर ‘कबूलनामे’ दिखाए गए। टीवी डिबेट्स में नाम चलने लगे, फोटो छपने लगे, और एक बड़ी आबादी ने मान लिया कि हाँ, ये ही वो लोग हैं। पुलिस ने दावा किया कि इन लोगों ने बम बनाने की ट्रेनिंग ली थी और पाकिस्तान से पैसा आया था। इस हमले के लिए कुल 13 लोगों को आरोपी बनाया गया। इनका केस mcoca की स्पेशल अदलात में चला। साल 2015 में मकोका कोर्ट ने 13 में से 12 आरोपियों को दोषी पाया। जिनमें से 5 आरोपियों कमाल अंसारी, मोहम्मद फैसल, एहतेशाम सिद्दीकी, नवीद हुसैन और आसिफ खान को ‘बम लगाने’, ‘आतंकी ट्रेनिंग लेने’, और ‘साज़िश रचने’ जैसे आरोपों में फाँशी की सज़ा दी गई थी। वहीं तनवीर अंसारी, माजिद शफी, मोहम्मद अली आलम शेख, साजिद मरगूब, मुज़म्मिल शेख, सुहैल शेख और ज़मीर शेख को उम्रकैद की सज़ा सुनाई।
बाक़ी बचे एक आरोपी वाहिद शेख को मकोका कोर्ट ने बरी कर दिया। वाहिद शेख पहले स्कूल टीचर थे। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने एक्टिविज़्म शुरू किया और बाक़ी लोगों के लिए ‘इनोसेंस नेटवर्क’ नाम का अभियान चलाया। उन्होंने जेल में बिताए सालों पर किताबें लिखीं, भारत की जेल व्यवस्था पर रिसर्च किया और इसी पर PhD तक पूरी की।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने पाया कि पुलिस के द्वारा दिए गए सबूत अधूरे हैं
इस मामले में जमीयत उलेमा-ए-हिंद, जो पहले एक धार्मिक संगठन था, अब एक लीगल सपोर्ट नेटवर्क ने कानूनी लड़ाई में बड़ी भूमिका निभाई। साथ ही वहाब शेख, शरीफ शेख, युग चौधरी, पायोशी रॉय, वरिष्ठ वकील नित्या रामकृष्णन और ओडिशा हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एस. मुरलीधर जैसे कई नाम इस लड़ाई में जुड़े रहे। इनके सहयोग से ही मकोका कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई। बॉम्बे हाईकोर्ट ने पाया कि पुलिस के द्वारा दिए गए सबूत अधूरे हैं और न ही फोरेंसिक रिपोर्ट पुलिस की कहानी की पुष्टि करती है न ही कोई गवाह। इस केस में सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात ये थी कि आरोपियों के कबूलनामे, जो पुलिस ने दिखाए, वो टॉर्चर से लिए गए थे। पुलिस के इस पूरे केस की नींव ही इतनी कमज़ोर थी कि चार्जशीट में कई विरोधाभास थे। आरोपियों के पहले और दूसरे बयान एक दम कॉपी-पेस्ट थे। एक ही आरोपी को दो अलग-अलग जगहों पर ब्लास्ट का मास्टरमाइंड बताया गया। ऐसे में अदालत ने अब जाकर कहा है कि “आपके खिलाफ कोई सबूत नहीं है”, आप सबको बरी किया जाता। यानी 19 साल जेल में रखने के बाद कोर्ट कह रहा है कि आपके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं हैं। 19 साल….एक इंसान की ज़िंदगी का वो अहम हिस्सा जिसमें करियर बनता है, परिवार बसता है, बच्चे स्कूल जाते हैं, और माँ-बाप बुढ़ापे में सहारे की उम्मीद करते हैं। लेकिन इन लोगों के 19 साल सिर्फ़ कैदखाने की सलाखों के पीछे बीत गए बिना किसी जुर्म के। इन 19 सालों को न कोर्ट वापस लौटा सकता है न ही किसी मुआवज़े से इनकी भरपाई हो सकती है।
अब अगर आपको लगता है कि ये किसी मिसअंडरस्टैंडिंग के चलते हुआ होगा तो यही आपकी सबसे बड़ी मिसअंडरस्टैंडिंग है। क्योंकि इस तरह का ये कोई इकलौता उदाहरण नहीं है।
21 लोगों के खिलाफ चार्जशीट भी दायर की गई
2006 में ही मालेगांव, महाराष्ट्र में शब-ए-बरात के दिन मस्जिद के पास धमाके हुए। 37 लोग मारे गए, 100 से ज़्यादा घायल हुए। पुलिस ने तुरंत कुछ मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार कर लिया जिनमें नासिर बिलाल, शब्बीर गनू, रईस अहमद और सलीम काज़मी शामिल थे। कहा गया कि ये लोग SIMI से जुड़े हैं और “जिहादी मानसिकता” के थे। लेकिन 2011 में NIA ने जांच में बताया कि हमले में शामिल असली लोग हिंदुत्ववादी संगठन से थे, जिनमें स्वामी असीमानंद, कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा का नाम सामने आया। 2016 में कोर्ट ने सभी मुस्लिम आरोपियों को बरी कर दिया। इनमें से कुछ ने 5 से 9 साल तक जेल में बिताए थे। ठीक ऐसा ही कुछ हैदराबाद में 2007 के मक्का मस्जिद ब्लास्ट केस में हुआ। धमाके में 9 लोग मारे गए, 58 घायल हुए। मक्का मस्जिद ब्लास्ट के बाद आंध्र प्रदेश पुलिस ने करीब 200 से ज़्यादा लोगों को पकड़ा जिनमें ज़्यादातर मुस्लिम युवक थे। 21 लोगों के खिलाफ चार्जशीट भी दायर की गई। पुलिस ने एक शख्स बिलाल को इस साजिश का मास्टरमाइंड बताया, जिसे बाद में पुलिस एनकाउंटर में मार गिराने का दावा किया गया। मगर कई मानवाधिकार संगठनों ने कहा कि ये एनकाउंटर फर्जी था। जनवरी 2009 में अदालत ने भी कहा कि बिलाल के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं है और उसे बरी कर दिया। इसके बाद केस CBI को सौंपा गया। CBI ने दो साल तक जांच की और पाया कि इसमें कुछ हिंदुत्ववादी संगठनों का हाथ हो सकता है। CBI ने तीन लोगों पर चार्जशीट दाखिल की देवेंद्र गुप्ता जो RSS प्रचारक था, लोकेश शर्मा एक प्रॉपर्टी डीलर, और उनका नेता सुनील जोशी। सुनील जोशी का नाम समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट में भी सामने आया था, लेकिन जांच पूरी होने से पहले ही उसकी दिसंबर 2007 में मध्य प्रदेश के देवास में रहस्यमय हालात में हत्या कर दी गई। 2011 में ये केस NIA को सौंपा गया। NIA ने मक्का मस्जिद ब्लास्ट के लिए कुल 10 लोगों को आरोपी बनाया।
2006 में हुआ बम विस्फोट हुआ
जिसमें स्वामी असीमानंद, सुनील जोशी और उनसे जुड़े हुए लोग शामिल थे। इससे पहले 2002 में गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हुए हमले के बाद भी यही पैटर्न दिखा था। हमले में 32 लोग मारे गए थे। हमले के बाद गुजरात पुलिस ने 6 मुस्लिम लोगों के हमले का आरोपी बनाया। निचली अदालतों और हाई कोर्ट ने इन्हें उम्रकेद और फाँसी की सजा सुनायी। लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा तो साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया। अभी हाल फ़िलहाल का उज्जैन का ही मामला ले लीजिए। 17 जुलाई 2023, उज्जैन में महाकाल की शोभायात्रा निकल रही थी। अदनान मंसूरी नाम का एक शख्स और उसके दो साथी इसे अपने छत से देख रहे थे। अदनान के हाथ में एक पानी की बॉटल थी। शोभा यात्रा में मौजूद सावन लोट नाम के एक व्यक्ति ने अदनान पर आरोप लगाया कि उसने उनपर थूका है। और अदनान के ख़िलाफ़ FIR दर्ज करा दी। आरोप की पुष्टि के लिए एक वीडियो भी पेश किया गया, जिसमें कुछ मुस्लिम युवक पानी की बोतल के साथ छत पर नज़र आ रहे थे। पुलिस पूछताछ में लड़कों ने सफाई दी थी कि वो महज़ पानी पी रहे थे। लेकिन फिर भी घटना के दो दिन बाद, 19 जुलाई 2023 को पुलिस प्रशासन और उज्जैन नगर निगम ने अदनान मंसूरी का घर तोड़ दिया। और अदनान को जेल में दाल दिया गया। इसके अगले साल 16 जनवरी 2024, को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर बेंच ने पाया कि अदनान मंसूरी ने शोभायात्रा पर नहीं थूका था।
शिकायतकर्ता सावन लोट ने भी कोर्ट में कहा कि उसने शोभायात्रा पर थूकने जैसी कोई हरकत नहीं देखी थी। उसने तो बस पुलिस के दबाव में बयान पर सिग्नेचर किए थे। इन घटनाओं को मिलाकर देखें तो तस्वीर साफ है ये कोई इक्का-दुक्का मामले नहीं, बल्कि एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा लगते हैं। असली बीमारी सिस्टम में है। जब तक जांच एजेंसियों की मानसिकता नहीं बदलेगी, जब तक अदालतें समय पर फैसला नहीं सुनाएंगी, जब तक पुलिस अफसरों को उनके झूठे केसों के लिए सज़ा नहीं मिलेगी ये सिलसिला चलता रहेगा। और हर कुछ सालों में कोई नई ‘कब्र’ खुलेगी, जिसमें से एक और बेगुनाह मुसलमान निकलेगा “आतंकी” का ठप्पा लिए हुए। 2006 में बम विस्फोट हुआ। ये फैक्ट है। 13 मुसलमानों को आरोपी बनाया गया। ये भी फैक्ट है। 2015 में MCOCA कोर्ट ने 5 को सज़ा-ए-मौत औऱ 7 को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई। ये भी फैक्ट है। और ये भी फैक्ट है कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने इन सभी दोषियों को बाइज्ज़त बरी कर दिया है। ऐसे में एक आख़िरी सवाल ये कि क्या ट्रेन में बम विस्फोट अपने आप हो गया या फिर 187 लोगों की मौत औऱ लगभग 800 घायलों के दुखों के ज़िम्मेदार को किसी ने जान-बूझकर बचा लिया?