
सरकारी आंकड़े बनाम हकीकत: भारत की बेरोजगारी दर पर रॉयटर्स का बड़ा खुलासा
भारत में बेरोज़गारी की तस्वीर जितनी सरकार दिखा रही है, हकीकत उससे कहीं ज़्यादा भयावह हो सकती है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्था रॉयटर्स के हालिया सर्वेक्षण में 70% से अधिक स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि भारत के आधिकारिक बेरोज़गारी आंकड़े ज़मीनी सच्चाई को नहीं दर्शाते। उनके अनुसार, वास्तविक बेरोज़गारी दर 10% तक हो सकती है, जो सरकार द्वारा जारी 5.6% के आँकड़े से लगभग दोगुनी है।
भारत की बेरोजगारी दर पर क्या बोले अर्थशास्त्री
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रणब बर्धन ने इसे "आँखों में धूल झोंकने" जैसा करार दिया है। उन्होंने कहा कि भारत में बड़ी संख्या में लोग पूरी तरह बेरोज़गार नहीं हैं, लेकिन उन्हें जो काम मिल रहा है, वह पर्याप्त नहीं है जिसे अर्धरोज़गार कहा जाता है। भारत की आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक अगर किसी ने पिछले सप्ताह में एक घंटा भी काम किया, तो उसे 'रोज़गारयुक्त' माना जाता है। हालांकि सांख्यिकी मंत्रालय अपने पीएलएफएस सर्वेक्षण की गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप होने का दावा करता है, लेकिन कई विशेषज्ञ इसे खारिज करते हैं। अर्थशास्त्री जयति घोष का कहना है कि वेतन में स्थिरता और असमानता दर्शाते हैं कि देश में गुणवत्ता वाला रोज़गार नहीं बढ़ा है। उन्होंने कहा, "अधिसंख्य मज़दूर आज भी 10 साल पहले की तुलना में कम वेतन पा रहे हैं। ये एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था का संकेत नहीं है।"
नौकरियों के मोर्चे पर सरकार पर दबाव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीसरी सरकार को बेरोज़गारी से जूझ रहे युवाओं के बढ़ते असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। खासकर तब जब आईटी और फाइनेंस जैसे क्षेत्र तेज़ी से बढ़ रहे हैं लेकिन वे श्रम-प्रधान नहीं हैं। पूर्व RBI गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव के अनुसार, “सरकारी आंकड़े ज़मीनी सच्चाई से मेल नहीं खाते।” उन्होंने व्यापक रोज़गार के लिए विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित करने की बात कही।
समाधान की दिशा में अर्थशास्त्रियों ने शिक्षा, कौशल विकास और नियामक ढांचे को सरल बनाने की सिफारिश की है। बाथ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा ने कृषि में रोजगार वृद्धि को 'सकारात्मक संकेत' मानने की धारणा को खारिज करते हुए एक क्षैतिज औद्योगिक रणनीति की वकालत की।
भारत सरकार की बहुचर्चित प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) योजना भी इस आलोचना के घेरे में है। विशेषज्ञों के अनुसार, यह रणनीति अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाई और चार वर्षों के भीतर ही कई सेक्टरों में इसे वापस लिया जा रहा है।
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