
मानव तस्करी की काली सच्चाई: शोषण और हताशा की कहानी
वह चार दीवारी में कैद होकर चीखती रही। हर दिन 16 घंटे बर्तन मांजने और झाड़ू लगाने में बीतते, और रात होते ही मालिक का दरिंदापन शुरू हो जाता। यही उसका रोज़ का शेड्यूल था। उसे दो बार अस्पताल ले जाया गया—ऐसे गुप्त क्लीनिकों में, जहां इंसान को जानवर समझा जाता था। वह बेची जा चुकी थी, एक बार नहीं, कई बार। हर बार नया मालिक, नया दर्द, और जिस्म नोचने वाले अलग-अलग हाथ। कभी दुबई, कभी कतर, तो कभी ओमान। जगहें बदलती रहीं, लेकिन उसका समय ठहर गया था—चार दीवारी में, किसी नए मालिक की हवस बनकर।
उसके दिन-रात घुटनों में सिर छुपाए गुजरते थे। कोई सुबह नई नहीं थी; हर सुबह बेचे जाने के डर के साथ शुरू होती थी। वह नौकरी का सपना लेकर आई थी, सोचती थी कि गरीब माता-पिता और भाई-बहनों का सहारा बनेगी। लेकिन वह एक जिस्म बनकर रह गई। यह कहानी है असम की एक 21 साल की लड़की दीक्षा की, जिसका नाम और पहचान गोपनीयता के लिए बदला गया है। एक एजेंट ने उसे झांसा दिया था, “दुबई में अच्छी नौकरी मिलेगी, ज़िंदगी बन जाएगी।” लेकिन जो बना, वह एक दलदल था, जिसमें हर साल हज़ारों भारतीय लड़कियां धकेली जा रही हैं। हज़ारों-लाखों लड़कियां गल्फ देशों में नौकरी के लिए जाती हैं, और कुछ महीनों बाद उनका कोई नाम-निशान नहीं मिलता। उनका फोन बंद, पासपोर्ट गायब, और उनका वजूद किसी दूसरे देश की रसोई में या किसी अजनबी की हवस के नीचे दबा हुआ मिलता है। यह मानव तस्करी की भयावह सच्चाई है।
हर साल हज़ारों भारतीय लड़कियां ‘हाउसकीपिंग’, ‘केयरटेकर’ या ‘नर्स’ के नाम पर बेची जा रही हैं। उन्हें टूरिस्ट वीजा पर भेजा जाता है, इमिग्रेशन पर झूठ बोलने की ट्रेनिंग दी जाती है, और फिर उनका पासपोर्ट और मोबाइल छीन लिया जाता है। उनका वजूद मिट्टी में मिला दिया जाता है। गल्फ के घरों में ये लड़कियां सिर्फ काम नहीं करतीं—उनकी नींद, उनका जिस्म, और उनकी पूरी ज़िंदगी लीज पर दे दी जाती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले पांच साल में सिर्फ ओमान से 17,000 से अधिक भारतीयों को ‘रेस्क्यू’ किया गया है। लेकिन जिन्हें बचाया नहीं जा सका, उनकी गिनती कौन करेगा? यह सिर्फ दीक्षा की कहानी नहीं है। यह आंध्र प्रदेश की लंकापल्ली मैरी की कहानी भी है। यह उन लाखों लड़कियों की कहानी है, जो गल्फ में काम करने गईं और आज तक नहीं लौटीं। हैदराबाद के राजीव गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एक फर्जी वीजा पकड़ा गया। इसके पीछे दलाल, एजेंट, फर्जी वीजा, और एक ऐसा सिस्टम है जो आंखें मूंदे बैठा है। एक टूरिस्ट वीजा, एक फेसबुक फ्रेंड रिक्वेस्ट, या एक फोन कॉल किसी की पूरी ज़िंदगी तबाह कर सकता है। भारत की बेटियां ओमान, दुबई, कतर जैसे देशों में क्यों बेची जा रही हैं? सरकार के पास सिर्फ आंकड़े हैं, समाधान नहीं। जब सरकार खुद मानती है कि देश में 3,000 से अधिक फर्जी एजेंट खुलेआम लड़कियों को विदेश बेच रहे हैं, तो क्या कोई रोकने वाला नहीं है?
मानव तस्करी: संकट का दायरा
विदेश मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि हज़ारों दलाल और फर्जी एजेंट बिना किसी सरकारी इजाज़त के लोगों को विदेश में नौकरी दिलाने के नाम पर ठग रहे हैं। ये एजेंट 1983 के Emigration Act की धज्जियां उड़ाकर गरीब और मजबूर लोगों को शिकार बनाते हैं। eMigrate पोर्टल पर 3,094 ऐसे अवैध एजेंटों के नाम दर्ज किए गए हैं। सबसे अधिक मामले ओमान (17,454) और सऊदी अरब (10,023) से निपटाए गए हैं। इन आंकड़ों में दीक्षा जैसी लड़कियां शामिल नहीं हैं, जिन्हें गुपचुप भेजा जाता है। बहुत कम मामले सामने आते हैं, क्योंकि या तो भ्रष्ट अधिकारी इन्हें दबा देते हैं या लड़कियां खुद हिम्मत नहीं जुटा पातीं।
हैदराबाद के राजीव गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एक बड़ा खुलासा हुआ। सत्यानारायण नाम का एक एजेंट मानव तस्करी और धोखाधड़ी के आरोप में गिरफ्तार हुआ। उस समय 35 साल की लंकापल्ली मैरी मस्कट जाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन इमिग्रेशन अधिकारियों को उसके वीजा में गड़बड़ी मिली। जांच में पता चला कि इस पूरे खेल का मास्टरमाइंड सत्यानारायण था। मैरी ने भरोसे में आकर उसे अपने सारे दस्तावेज सौंप दिए थे। सत्यानारायण ने न केवल उसे नया पासपोर्ट थमाया, बल्कि कहा, “अब पुराना सिस्टम नहीं चलता। खुद खर्च उठाओ, तभी बाहर जाओगे।” मेडिकल टेस्ट हुआ, और मस्कट का वीजा थमा दिया गया। सब कुछ इस तरह प्लान किया गया जैसे यह रूटीन प्रक्रिया हो। लेकिन असल में यह एक औरत को बेचने की तैयारी थी। यह मामला अभी जांच में है, लेकिन यह साफ है कि दीक्षा हो या मैरी, सिस्टम का खेल एक जैसा है—चेहरों और नामों में अंतर है, दर्द एक जैसा है।
दीक्षा की कहानी: सपना जो नर्क बन गया
The Quint के हवाले से दीक्षा की कहानी दिल दहला देने वाली है। असम की 21 साल की दीक्षा अपने परिवार की सबसे बड़ी बेटी थी। उसके पिता एक मामूली मिस्त्री थे, मां गृहिणी, और छोटी बहन 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी। दीक्षा सिर्फ आठवीं तक पढ़ पाई थी, लेकिन चाहती थी कि उसकी बहन आगे पढ़े और तरक्की करे। असम के चिरांग जिले में, भारत-भूटान सीमा के पास बसे उसके गांव में रोजगार न के बराबर था। न फैक्ट्रियां, न दफ्तर, न कोई ठोस काम। एक रिश्तेदार ने दीक्षा की मुलाकात बिकाश नाम के एक एजेंट से करवाई। उसे बताया गया कि बिकाश ने पहले भी कई लोगों को दुबई में नौकरी दिलाई है। दीक्षा ने कहा, “मुझे किसी फास्ट-फूड रेस्तरां में वेटर की नौकरी चाहिए।” बिकाश ने उसे दुबई में हाउसकीपिंग की नौकरी का ऑफर दिया, जिसमें 20-22 हज़ार रुपये महीने की तनख्वाह का वादा किया। गांव की सीधी-सादी लड़की के लिए, जिसे परिवार चलाने के लिए नौकरी चाहिए थी, यह सुनहरा मौका लग रहा था। उसे अंदाज़ा नहीं था कि वह एक ऐसे दलदल की ओर बढ़ रही है, जहां से लौटना लगभग असंभव है।
महज 15 दिनों में बिकाश ने सारे दस्तावेज तैयार कर दिए—पासपोर्ट, वीजा, टिकट। लेकिन यह वीजा ‘वर्क वीजा’ नहीं, बल्कि ‘टूरिस्ट वीजा’ था। ऐसे धोखेबाज़ एजेंट अक्सर मजबूर लोगों को रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों के ज़रिए फंसाते हैं और उन्हें टूरिस्ट वीजा पर भेजते हैं ताकि कानून की पकड़ से बचा जा सके। कानूनी तौर पर, जिनके पास ECR (Emigration Check Required) पासपोर्ट है, उन्हें सरकारी अनुमति के साथ भेजा जाना चाहिए। दीक्षा, जो पहले कभी हवाई जहाज़ में नहीं बैठी थी और जिसे एयरपोर्ट का कोई अनुभव नहीं था, को बिकाश ने इमिग्रेशन अधिकारियों से क्या बोलना है, यह रटवा दिया। और दीक्षा दुबई पहुंच गई। दुबई एयरपोर्ट पर उसे लेने एक भारतीय दंपति, अर्जुन और नूर, आए। उन्होंने तुरंत उसका पासपोर्ट और फोन छीन लिया और उसे अपने फ्लैट ले गए। वहां उसका ‘बायोडेटा रिकॉर्डिंग’ शुरू हुआ। दीक्षा से अंग्रेजी में एक वीडियो बनवाया गया, जिसमें उसने अपना नाम, उम्र, और काम का अनुभव बताया। इस वीडियो को ऑनलाइन अपलोड किया गया ताकि कोई ‘स्पॉन्सर’ उसे खरीद सके। दुबई में घरेलू नौकर के लिए नियम है कि स्पॉन्सर को वीजा, रहने की जगह, तनख्वाह, मेडिकल, और छुट्टियां देनी होती हैं। लेकिन बिकाश जैसे दलाल इन नियमों को चकमा देते हैं। वे मजबूर लोगों को ‘सस्ता मज़दूर’ बनाकर बेच देते हैं, बिना वीजा स्पॉन्सरशिप या अधिकारों के।
दीक्षा का दिन सुबह 4 बजे शुरू होता था, और उसे सिर्फ 30 मिनट का आराम मिलता, जिसमें बचा-खुचा खाना दिया जाता। वह पूरी तरह बंधुआ मज़दूर बन चुकी थी। उसे अलग-अलग घरों में नौकरानी के तौर पर भेजा जाने लगा। जब उसने रो-रोकर भारत लौटने की बात की, तो उसे कहा गया, “3 लाख रुपये दो, तभी जा सकती हो।” जब वह यह रकम नहीं दे पाई, तो उसे फिर से तस्करी कर ओमान भेज दिया गया—फिर से टूरिस्ट वीजा, फिर से वही झूठे वादे, और इस बार शोषण और भी गहरा। ओमान पहुंचते ही उसे एयरपोर्ट से उसके नए ‘स्पॉन्सर’ ने ले लिया। उसका पासपोर्ट और फोन फिर छीन लिया गया। वह पूरी तरह उस अजनबी की ‘मिल्कियत’ बन चुकी थी। ओमान में ‘कफाला सिस्टम’ चलता है, जिसमें प्रवासी मज़दूर का वीजा उसके स्पॉन्सर के नाम से जुड़ा होता है। इसका मतलब है कि न वह नौकरी छोड़ सकता है, न देश, और न ही किसी और मालिक के पास जा सकता, जब तक स्पॉन्सर इजाज़त न दे।
दीक्षा 16-18 घंटे बिना तनख्वाह के काम करती थी। फिर एक दिन ऐसा हुआ, जो किसी की भी रूह कांपाने के लिए काफी था। उसके मालिक ने उसके साथ बलात्कार किया, और यह सिलसिला लगातार चलता रहा। ओमान उसके लिए नर्क से भी बदतर बन गया। थककर, टूटकर, उसने उस भारतीय दंपति को फोन किया, जिन्होंने उसे दुबई में रिसीव किया था। उसने कहा, “प्लीज, मुझे भारत वापस भेज दो, मुझसे नहीं हो रहा।” जवाब ने उसकी रूह तक हिला दी। उन्होंने कहा, “3 लाख रुपये दो, तभी जा सकती हो। हमने बिकाश को पैसे दिए थे तुझे दुबई लाने के लिए।” दीक्षा सन्न रह गई। उसे समझ आया कि बिकाश ने उसे बेच दिया था। वह एक सौदे का हिस्सा थी। उसे सिर्फ दस मिनट के लिए फोन मिलता था, वह भी अपनी मां से 3 लाख रुपये का इंतजाम कराने के लिए। लेकिन उसका परिवार इतना गरीब था कि यह रकम जुटाना असंभव था। वह चुपचाप काम करती रही, और उसका हर तरह से शोषण होता रहा। उसे लगने लगा था कि उसकी ज़िंदगी यहीं खत्म हो जाएगी। तभी उसे एक श्रीलंकाई आदमी, अर्हम मोहम्मद, मिला, जो उस एजेंट के ऑफिस में काम करता था, जहां उसका सौदा हुआ था। उसने हिंदी में बात शुरू की और कहा, “अगर घर जाना चाहती हो, तो मैं पैसे कमाने में मदद कर सकता हूं।” दीक्षा किसी भी तरह वापस लौटना चाहती थी। उसने कहा, “ठीक है, बस मुझे यहां से निकाल दो।”
अर्हम उसे अपने घर ले गया और एक कमरे में बंद कर दिया, जहां सिर्फ ब्रेड का पैकेट और पानी की बोतल थी। तीन दिन तक वही खाना, वही अकेलापन।
तीसरे दिन, उसने दीक्षा को ओमान के सोहर शहर में एक और स्पॉन्सर के हवाले कर दिया। यानी उसे फिर से बेच दिया गया। इस बार शोषण और भी भयावह था। दीक्षा बताती है, “उस स्पॉन्सर और उसके दोस्त ने महीनों तक रोज़ मेरा बलात्कार किया। दो बार मुझे अस्पताल ले जाना पड़ा, लेकिन वे मुझे ऐसे क्लीनिक ले जाते थे, जहां कोई आईडी नहीं मांगी जाती थी।” टूट चुकी दीक्षा ने अपनी जान लेने की कोशिश भी की। किसी तरह उसे उसका फोन मिल गया। उसने अपनी एक दोस्त को मैसेज भेजा, जिसने तुरंत दिल्ली की मनोबल फाउंडेशन की निर्मला वॉल्टर से संपर्क किया। निर्मला ने तुरंत ओमान पुलिस और भारतीय दूतावास को सूचित किया। रॉयल ओमान पुलिस ने त्वरित कार्रवाई की और दीक्षा को उस नर्क से निकाला। भारतीय दूतावास ने उसे ‘इमरजेंसी पासपोर्ट’ जारी किया, और लंबी कोशिशों के बाद, 7 जुलाई को दीक्षा भारत वापस लाई गई।
दीक्षा की कहानी अकेली नहीं है। यह उस सड़े-गले सिस्टम की हकीकत है, जहां गरीबी और सपने तस्करों की कमाई बन जाते हैं। ऐसी अनगिनत महिलाएं इस चक्र का शिकार बनती हैं, झूठे वादों से ललचाकर और सिस्टम की नाकामी से धोखा खाकर। इस मुद्दे के प्रति जागरूकता फैलाना जरूरी है ताकि और जिंदगियां बचाई जा सकें और इस अमानवीय व्यापार को रोका जा सके।
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