प्रसाद मिल अहमदाबाद: गरीबों के घर तोड़े जाने के पीछे अडाणी परिवार और सरकार की मिलीभगत का आरोप

गुजरात के अहमदाबाद में एक मिल हुआ करती थी, कई दलित मज़दूर यहाँ रहते थे, फिर एक दिन अडानी के बाउन्सर आते हैं और बीमार लोगों तक को घरों से निकाल कर फेंकने लगते हैं। प्रसाद मिल अहमदाबाद की कहानी एक ऐसी दर्दनाक सच्चाई है, जो आज भी तमाम सवालों के घेरे में है। इस मिल की ज़मीन जो कभी मजदूरों की जिंदगी का हिस्सा थी, आज वो एक नई साज़िश का शिकार बन चुकी है। 1914 में स्थापित यह मिल, जो कभी ढाई हज़ार मज़दूरों का रोज़गार थी, अब एक महंगे इलाके के रूप में बदल चुकी है। साढ़े तीन अरब रुपये की क़ीमत वाली इस ज़मीन पर अब जिनके कदम पड़ रहे हैं, वे नामी कारोबारी हैं और उस साजिश की धुरी पर है अडानी परिवार का हाथ।


प्रसाद मिल अहमदाबाद 1914 में हुई शुरुआत


प्रसाद मिल अहमदाबाद के रायखड़ इलाके में इसकी शुरुआत 1914 में हुई थी। एक वक्त था जब यहाँ ढाई हज़ार मज़दूर काम करते थे। फिर 1988 में इसे दिवालिया घोषित कर दिया गया और 1998 में कोर्ट के कहने पर मिल की संपत्तियां बेच दी गईं थीं। असली कहानी ये है कि मिल की जो ज़मीन है, वो करीब 37,000 Sq मीटर में फैली हुई है और अहमदाबाद के सबसे महंगे इलाकों में आती है। इसके एक किलोमीटर के अंदर ही साबरमती नदी, अहमद शाह की मस्जिद, किला, कोर्ट, मेट्रो, बस स्टॉप और बेशकीमती सरकारी दफ्तर हैं। यानी जिस ज़मीन पर कभी गरीबों की झुग्गियां हैं, जिन्हें उजाड़ा जा रहा है उसकी आज की कीमत करीब साढ़े तीन अरब रुपये आँकी जा रही है। इसकी कहानी ये थी कि इस मिल के मालिक दुर्गा प्रसाद का परिवार था। प्रसाद मिल में 461 machines और करीब 25,000 धागा बनाने वाली मशीनें थीं। यहाँ कपड़ा बनाया जाता था। मिल घाटे में जाने लगी। कर्मचारियों की सैलरी रुक गई और एक वक्त ऐसा आया कि मिल को बंद कर दिया गया। जब ये मिल बंद हुई, तब यहाँ करीब 1,200 मज़दूरों का रोज़गार छिन गया था। 

कंपनी ने कोर्ट में बताया कि उसकी संपत्ति की अनुमानित कीमत करीब 8 करोड़ रुपये है। लेकिन कंपनी पर कर्ज़ भी बहुत था जैसे: EPF वगैरह जैसे दायित्वों का 3.75 लाख रुपये बकाया था और ये राशि उस वक्त यानी 80 के दशक में काफ़ी होती थी। कम्पनी पर IDBI और SBI द्वारा दी गई सुविधाओं की बकाया राशि करीब 115.03 लाख रुपये थी। मिल का संचालन 1984 में ही बंद हो गया था और 1988 में वह मिल दिवालिया हो गई। जिन मज़दूरों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा वो मिल परिसर में रहने लगे। लगभग 80 परिवार आज भी वही रहते हैं, जो कभी उस मिल के मजदूर थे। इनमें से ज्यादातर दलित समुदाय से हैं, और सबसे बड़ी बात कि उनके पास टेनेंसी राइट्स भी हैं। लेकिन अब यह राइट्स छीनने की कोशिश हो रही है। और इसके पीछे हैं बहुत ताकतवर लोग। अडानी। इसपे बाद में बात होगी एक बार समझते हैं इस मिल के दिवालिया होने के बाद क्या क्या हुआ? 1984 में, पैसों की तंगी के चलते 12 जनवरी से मिल बंद करनी पड़ी। इसके बाद मिल में काम करने वाले मज़दूरों के यूनियन ने अपनी बकाया सैलरी के लिए अहमदाबाद के श्रम न्यायालय में शिकायत की। 

मिल का संचलान बंद हुआ लेकिन उसे दिवलीया घोषित नहीं किया गया था। तो कंपनी ने एक आखिरी कोशिश की, कोर्ट से गुहार लगाई कि उसे कुछ ज़मीन-जायदाद गिरवी रखकर कर्ज़ लेने दिया जाए। मकसद था पुराने कर्ज चुकाना और कंपनी को कुछ वक्त तक और ज़िंदा रखना। फिर मज़दूरों की तरफ़ से एक और याचिका दायर की गई, जिसमें कहा गया कि कंपनी बंद हो चुकी है और उसकी संपत्तियाँ अब बेचने की हालत में हैं। कोर्ट ने कहा "कंपनी को 22 फरवरी 1984 को नोटिस भेजा जाएगा, इसके बाद जब दोनों पक्षों की बात सुनी गई, तो कोर्ट ने 23 फरवरी 1984 को एक और आदेश दिया, जिसमें कहा गया "कंपनी के पास जो भी माल-पट्टा (जैसे कपड़ा वगैरह) पड़ा है, उसे बेचने का हक उसे होगा। लेकिन ये तभी मान्य होगा जब कंपनी सारा हिसाब किताब खुले और ईमानदार तरीके से रखे ताकि उन पैसों से कर्मचारियों या कर्जदारों का भुगतान हो सके। कम्पनी ने गुजरात सरकार से कहा कि उन्हें दोबारा शुरू करने में सहायता दी जाए। गुजरात सरकार ने 31 मई 1984 को बॉम्बे रिलीफ अंडरटेकिंग एक्ट 1958 की धारा 3 का इस्तेमाल करते हुए एक नोटिफिकेशन निकाला और कहा कि प्रसाद मिल्स को Relief Undertaking माना जाएगा मतलब ये कि 31 मई 1984 से, जब तक सरकार चाहेगी, तब तक कंपनी को कुछ राहत मिलेगी — न कोई कर्ज़ वसूली होगी, न कोई कोर्ट केस चलेगा, न किसी तरह का दबाव होगा। मिल को चलने का ज़िम्मा दिया गया SBI और IDBI को। इस बीच मजदूरों को वेतन नहीं मिला, और कंपनी की हालत भी नहीं सुधरी।

प्रसाद मिल अहमदाबाद 1988 को दिवालिया घोषित


1984 के आख़िरी महीनों तक, एसबीआई और IDBI को भी लगने लगा कि अब मिल को चलाना मुश्किल है। इसके बाद कंपनी ने सरकार और बैंकों से एक नई गुज़ारिश की कि अब मिल चलाने का कोई रास्ता नहीं बचा है, इसलिए हमें इजाज़त दी जाए कि हम अपनी कुछ ज़मीन-जायदाद गिरवी रखकर कर्ज़ ले सकें, ताकि पुराने बकायों को चुकाया जा सके। बीस लाख का लोन दे दिया गया, शर्ट बनाने की मशीन लगा कर काम शुरू किया गया, RAW मटीरीयल ख़त्म होने लगा और कुछ दिन बाद कम्पनी ने फिर से लोन की माँग कर दी। कोर्ट ने अब कहा "अगर अब कोई नया लोन दिया भी जाता है, तो इससे किसी कर्ज़दार या (लोन देने वाले) को फायदा नहीं होगा, बल्कि नए लोग और मज़दूर इसकी चपेट में आ जाएंगे। इससे बेरोज़गारी और नुकसान और ज़्यादा बढ़ेगा।" इसलिए कोर्ट ने फैसला किया कि अब इस कंपनी को दोबारा लोन देने की इजाज़त नहीं दी जाएगी, और मिल को फिर से चालू करने का कोई औचित्य अब नहीं बनता।

मिल की कहानी कोर्ट की मोहर के साथ ख़त्म हो गई। 1988 में मिल को दिवालिया घोषित किया गया और 1998 में लिक्विडेटर ने चल संपत्तियां कोर्ट के आदेश पर बेच दी, यानी मशीन्स और मटीरीयल, ताकि मिल के कर्जे चुकाए जा सकें। अब बड़े बड़े कारोबारियों की नज़र इसकी महँगी ज़मीन पर थी। कंपनी रजिस्ट्रार के बताते हैं कि 24 जनवरी, 2025 से वसंतभाई शांतिलाल अडानी, शान आनंद ज़वेरी और रिशित राजेंद्र कुमार पटेल, प्रसाद मिल के नए डायरेक्टर नियुक्त किए गए हैं। इससे पहले 9 सितंबर 2024 को आनंद विपिनचंद्र शाह को डायरेक्टर बनाया गया था। वसंतभाई अडानी गौतम अडानी के बड़े भाई हैं और अडानी एंटरप्राइजेज सहित दर्जनों कंपनियों में डायरेक्टर रह चुके हैं। वसंत भाई अडानी 30 जून, 1994 से 12 अगस्त तक अडानी एंटरप्राइज के डायरेक्टर रहे हैं। अडानी एंटरप्राइज के अलावा वसंत भाई शंतिकृपा एस्टेट प्राइवेट लिमिटेड के भी डायरेक्टर रहे हैं। कॉर्पोरेट अफेयर मिनिस्ट्री के अनुसार इस समय लगभग 8 कंपनियों के डायरेक्टर हैं। शान आनंद ज़वेरी गुजरात के प्रसिद्ध साराभाई परिवार से संबंध रखते हैं और रियल एस्टेट कारोबारी हैं। रिशित पटेल का सम्बंध भी रियल एस्टेट से है। आनंद विपिनचंद्र शाह 30 से अधिक कंपनियों में डायरेक्टर हैं। जबसे इन रियल एस्टेट कारोबारियों ने डायरेक्टर पद संभाला है, तभी से मिल परिसर में रह रहे किरायेदारों पर दबाव बनाया जा रहा है कि प्रसाद मिल को खाली कर दें।

फिर आया 27 जुलाई का दिन। सुबह सामान्य जैसी दिख रही थी लेकिन सामान्य थी नहीं। मिल की ज़मीन पर बसे मज़दूरों की बस्ती में पुलिस और बाउंसर दस्तक देते हैं। लोगों को घरों से उठा उठा कर फेंकना शुरू कर देते हैं। ये लोग बुल्डोज़र साथ ले कर आते हैं। 18 घरों को तोड़ कर मिट्टी में मिला देते हैं। और अधिकतर नाम दलित मज़दूरों के होते हैं। मज़दूरों को उनके घरों से बाहर करने के लिए प्रशासन ने हर सम्भव अमानवीय प्रयास किया। जब बाउन्सर्ज़ मज़दूरों को घरों से घसीट घसीट कर बाहर निकाल रहे थे उसी समय टोरेंटपावर नाम की बिजली कंपनी ने बिना कोई इन्फ़र्मेशन दिए बिजली सप्लाई बंद कर दी। ये एक तरह से इलीगल था। बिजली की सप्लाई रोकने के बाद, नगर निगम के कर्मचारियों ने इलाके की ड्रेनेज व्यवस्था भी बंद कर दी। अब इन परिवारों के पास न तो ठीक से शौचालय था और न बिजली ना रहने की जगह, क्योंकि बुल्डोज़र का पंजा घरों को नोंच रहा था। लोगों ने इस क्रूर कार्रवाई के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करना शुरू किया तो प्रशासन बीच में आ गया, मज़दूर जानना चाहते थे कि ये बुल्डोज़र और बाउन्सर्ज़ किसके भेजे हुए हैं। 

ज़मीन का मालिक अब अडानी


पुलिस इंस्पेक्टर गोसाई ने आंदोलनकारियों को यह नहीं बताया कि बाउंसरों को किसने भेजा और पुलिस बंदोबस्त किसके कहने पर हुआ। उन्होंने कहा, “आरटीआई डाल दीजिए, रिकॉर्ड में जो है, मिल जाएगा।” कार्रवाई इतनी क्रूर थी कि मेहुल राठौड़ अपनी नानी से मिलने ‘प्रसाद मिल’ पहुँचे थे। उनकी नानी को पुलिस जबरदस्ती घसीट रही थी। मेहुल ने अपना मोबाइल निकाला और वीडियो बनाना शुरू किया लेकिन पुलिस ने मोबाइल छीन लिया और मेहुल को पकड़कर ले गए। जब इस पूरे मामले पर सवाल उठे तो पुलिस इंस्पेक्टर ने कहा “हमारे पास उन सबके नाम हैं जिन्होंने सरकारी काम में टांग अड़ाई। चाहे तो आज भी उन सब पर एफआईआर दर्ज कर सकते हैं।” जब ‘घर आंदोलन’ के कुछ सामाजिक कार्यकर्ता पीड़ितों के साथ पुलिस इंस्पेक्टर गोसाई से मिलने पहुंचे, तो उन्होंने कहा, “जो हुआ, वो कानून के मुताबिक हुआ। मैं सरकार का नौकर हूं, जो हुक्म मिलेगा, वही करूंगा। पीड़ितों के पास कोई कोर्ट का स्टे ऑर्डर नहीं था, और मिल की तरफ से सात दिन पहले नोटिस दिया गया था।”

लेकिन असली खेल ये था कि ज़मीन का मालिक अब अडानी को बना दिया गया था, और पूरा मामला 'क़ानूनी' कागज़ों में फिट कर दिया गया था। 85 साल के शंकरभाई, का हाल ही में ब्रेन हैमरेज का ऑपरेशन हुआ था। शंकरभाई अपने घर में आराम से बैठे थे बारिश हो रही थी। काले और गीले कपड़ों में एक निजी बाउंसर उनके घर में घुसा, और बिना किसी परवाह के, उन्हें उनकी कुर्सी सहित बाहर बारिश में फेंक दिया। एक 85 साल के बीमार आदमी को इस तरह बारिश में फेंक देना, किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है। यह घटनाएं केवल शंकरभाई के साथ ही नहीं हुईं। वीरेंद्र भाई परमार, जो इस मिल में रहते हैं, बताते हैं, “बस दो दिन पहले ही अस्पताल से लौटे जीतूभाई नारनभाई चौहान को भी इन बाउंसरों ने वही किया। उन्हें कुर्सी सहित बाहर फेंक दिया, जबकि उनकी नाक में नली लगी हुई थी, जिसे डॉक्टर ने एक दिन पहले ही निकाला था। उनकी 80 साल की मां, निमोबेन चौहान को भी बाउंसरों ने ज़बरदस्ती बाहर घसीटा, उनकी पोती को भी घसीटा गया।

यह कहानी एक ऐसी संघर्षमय ज़िंदगी की है, जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए एकजुट होकर लड़ रही है। ये बस्ती एक ऐसा इलाका था जहां दलित समुदाय के लोग अपने जीवन की कठिनाइयों से जूझते हुए अपनी गुजर-बसर कर रहे थे। लेकिन जब यह बस्ती उजाड़ दी गई, तो न केवल प्रशासन, बल्कि अहमदाबाद के कई शक्तिशाली लोग भी इस साजिश में शामिल पाय गए। जब कानून और न्याय की परिभाषा ताक़त के हिसाब से बदलने लगे तो सवाल बहुत पैदा होते हैं, और इन सवालों का जवाब सिर्फ़ सरकार और प्रशासन को देना है। क्या वो जवाब देंगे? क्या इन पीड़ितों को उनका हक मिलेगा? 

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