जस्टिस वर्मा को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं, जांच समिति की रिपोर्ट बरकरार

इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिली। उनके आवास में आग लगने और जले हुए नकदी नोटों की बरामदगी से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन सदस्यीय जांच समिति ने उन्हें दोषी पाया था। जस्टिस वर्मा ने इस रिपोर्ट के खिलाफ शीर्ष अदालत में याचिका दाखिल की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को खारिज कर दिया। जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट की इंटरनल इन-हाउस जांच रिपोर्ट और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा उन्हें पद से हटाने की सिफारिश को चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एजी मसीह शामिल थे, ने स्पष्ट रूप से कहा कि जांच समिति ने सभी निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन किया है और इसलिए याचिका पर विचार नहीं किया जा सकता।


जस्टिस वर्मा का आचरण भरोसेमंद नहीं


सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, "जस्टिस वर्मा का आचरण ऐसा नहीं है जिससे न्यायिक पद के प्रति भरोसा उत्पन्न हो। इन-हाउस जांच समिति की प्रक्रिया वैध थी और इसे असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता।" पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि तत्कालीन CJI जस्टिस संजीव खन्ना द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा गया पत्र भी संविधान के अनुरूप था और इसमें कोई प्रक्रिया-विरोध नहीं है। जस्टिस वर्मा की ओर से यह दलील दी गई थी कि जांच में फोटो और वीडियो साक्ष्य अपलोड नहीं किए गए। इस पर कोर्ट ने कहा कि यह कोई अनिवार्य प्रक्रिया नहीं थी, और उस समय इस मुद्दे को चुनौती नहीं दिया गया था।

क्या है पूरा 'कैश कांड'?


मार्च 2025 में सामने आए जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़े ‘कैश कांड’ ने न्यायिक हलकों में हलचल मचा दी थी। यह विवाद 14 मार्च, होली की रात उस समय सामने आया जब जस्टिस वर्मा के नई दिल्ली स्थित आवास में आग लग गई। आग बुझाने के लिए जब दमकल विभाग की टीम मौके पर पहुंची, तो उन्हें वहां बड़ी मात्रा में नकदी पड़ी मिली  जिसमें कुछ नोट जले हुए हालत में बरामद हुए। घटना की जानकारी सामने आते ही मामला सुर्खियों में आ गया और सवाल उठने लगे कि आखिर इतनी नकदी घर में क्यों रखी गई थी। 

इसके बाद तत्काल प्रभाव से जस्टिस वर्मा का तबादला दिल्ली हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाई कोर्ट कर दिया गया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए तीन सदस्यीय आंतरिक जांच समिति का गठन किया। जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा को दोषी ठहराया और तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश (CJI) को उनकी सेवा समाप्त करने की सिफारिश की। जस्टिस वर्मा ने इस सिफारिश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन उनकी याचिका खारिज कर दी गई।

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