
शिबू सोरेन: झारखंड के 'दिशोम गुरु' की जीवन यात्रा, संघर्ष और विरासत
शिबू सोरेन, जिन्हें 'दिशोम गुरु' के नाम से जाना जाता था, न केवल झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री थे, बल्कि एक ऐसे आदिवासी नेता भी थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में आदिवासी समुदाय के अधिकारों, जमीन और अस्मिता के लिए अथक संघर्ष किया। 11 जनवरी 1944 को जन्मे और 4 अगस्त 2025 को दुनिया को अलविदा कहने वाले शिबू सोरेन की कहानी एक साधारण गांव के लड़के से लेकर राष्ट्रीय राजनीति के एक प्रभावशाली चेहरे तक की प्रेरणादायक यात्रा है। यह लेख उनकी जिंदगी के हर पहलू—उनके प्रारंभिक जीवन, झारखंड आंदोलन में योगदान, JMM के गठन, राजनीतिक करियर, विवादों और मृत्यु तक—को गहराई से और खोजी नजरिए से प्रस्तुत करता है।
शिबू सोरेन: आदिवासी परिवार में हुआ जन्म
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को तत्कालीन बिहार (अब झारखंड) के रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके पिता शोबरन सोरेन एक साधारण किसान थे, जो गोल ब्लॉक मुख्यालय से 16 किलोमीटर दूर लुकैयाटांड जंगल में 27 नवंबर 1957 को साहूकारों द्वारा कथित तौर पर मारे गए, जब शिबू केवल 15 साल के थे। इस व्यक्तिगत त्रासदी ने उनके मन में गैर-आदिवासियों ('दिकु') और साहूकारों द्वारा किए जा रहे आदिवासी शोषण के खिलाफ गहरी नाराजगी पैदा की। यह घटना उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट थी, जिसने उन्हें सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन की ओर प्रेरित किया।
शिबू ने हजारीबाग के गोला हाई स्कूल से दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों और आर्थिक तंगी के कारण आगे की पढ़ाई नहीं कर सके। इसके बाद, उन्होंने लकड़ी के व्यापार में काम शुरू किया, लेकिन उनका ध्यान जल्द ही सामाजिक सुधार की ओर मुड़ गया। 18 साल की उम्र में, 1962 में, उन्होंने संथाल नवयुवक संघ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य आदिवासी युवाओं को एकजुट कर उनके हक की लड़ाई लड़ना था। इस संगठन ने आदिवासियों को संगठित करने और साहूकारों के खिलाफ आवाज उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शिबू ने इस दौरान साहूकारी और शराब के खिलाफ आंदोलन भी चलाए, जो आदिवासी समुदाय को आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर कर रहे थे।
झारखंड आंदोलन: आदिवासियों की जमीन और अस्मिता की लड़ाई
झारखंड आंदोलन का इतिहास शिबू सोरेन के योगदान के बिना अधूरा है। 1970 के दशक में, बिहार के चोटानागपुर और संथाल परगना क्षेत्रों में आदिवासियों की जमीनें गैर-आदिवासियों द्वारा हड़पी जा रही थीं। इन गैर-आदिवासियों को स्थानीय लोग 'दिकु' कहते थे, जो आदिवासियों की जमीन और संसाधनों पर कब्जा जमाए हुए थे। शिबू ने इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाई और आदिवासियों को उनकी जमीन वापस दिलाने के लिए कई आंदोलन शुरू किए।
उनके शुरुआती आंदोलनों में 'जंगल काटो' और 'खेत जोतो' जैसे अभियान शामिल थे, जिनमें आदिवासियों ने सामूहिक रूप से अपनी हड़पी गई जमीनों पर खेती शुरू की। शिबू ने कई बार गैर-कानूनी रूप से 'लोक अदालतें' भी आयोजित कीं, जिनमें साहूकारों और जमींदारों को दंडित किया जाता था। उनकी यह रणनीति आदिवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय हुई और उन्हें 'दिशोम गुरु' (धरती का नेता) का दर्जा मिला। 1970 के दशक के अंत तक, शिबू ने झारखंड की अलग राज्य की मांग को और तेज किया। सितंबर 1980 में, गुहा (अब पश्चिमी सिंहभूम जिला) में पुलिस फायरिंग में 15 आदिवासियों की मौत ने आंदोलन को और बल दिया। इस घटना ने शिबू को एक लोक नायक के रूप में स्थापित किया। उनकी अगुवाई में, आंदोलन ने राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान खींचा, और आखिरकार 15 नवंबर 2000 को, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने बिहार से अलग कर झारखंड राज्य का गठन किया। यह शिबू सोरेन और JMM की सबसे बड़ी जीत थी।
झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) का गठन और विकास
शिबू सोरेन ने 1972 में बंगाली मार्क्सवादी ट्रेड यूनियन नेता एके रॉय और कुर्मी-महतो नेता बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की नींव रखी। 2 फरवरी 1973 को, बिरसा मुंडा के जन्मदिन पर धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में एक सार्वजनिक सभा में JMM का औपचारिक गठन हुआ। शिबू सोरेन इसके महासचिव बने, जबकि बिनोद बिहारी महतो को अध्यक्ष बनाया गया। JMM का मुख्य उद्देश्य था: आदिवासियों की जमीन और संसाधनों की रक्षा करना।
बिहार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों को अलग कर एक स्वतंत्र झारखंड राज्य की स्थापना करना।
खनन और औद्योगिक मजदूरों, अल्पसंख्यकों और आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा करना।
1986 में, शिबू JMM के अध्यक्ष बने और 2025 तक लगभग 38 साल तक इस पद पर रहे। अप्रैल 2025 में, उन्होंने अपने बेटे हेमंत सोरेन को अध्यक्ष बनाया और खुद संस्थापक संरक्षक की भूमिका निभाई। JMM ने न केवल आदिवासियों बल्कि गैर-आदिवासियों को भी अपने साथ जोड़ा, जिससे यह झारखंड की सबसे प्रभावशाली राजनीतिक ताकतों में से एक बन गया। JMM ने चोटानागपुर और संथाल परगना क्षेत्रों में मजबूत समर्थन हासिल किया। शिबू की रणनीति थी कि वे आदिवासियों के साथ-साथ खनन मजदूरों और अन्य वंचित समुदायों को भी एकजुट करें। उनकी अगुवाई में JMM ने आदिवासी संस्कृति और स्वायत्तता की मांग को राष्ट्रीय मंच पर ले जाया, जिसने झारखंड आंदोलन को बल दिया।
राजनीतिक करियर: उतार-चढ़ाव और उपलब्धियाँ
शिबू सोरेन का राजनीतिक करियर जितना प्रेरणादायक था, उतना ही चुनौतियों से भरा भी रहा। उन्होंने राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया, लेकिन उनकी कोई भी पारी लंबी नहीं रही। उनका राजनीतिक सफर इस प्रकार रहा: लोकसभा: शिबू ने 1980, 1989, 1991, 1996, 2002, 2004 और 2014 में दुमका लोकसभा सीट से जीत हासिल की। 1977 में वे निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में हारे थे, और 1998, 1999 और 2019 में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
राज्यसभा: 2002 और 2020 में वे झारखंड से राज्यसभा सदस्य चुने गए। 2020 में चुने जाने के बाद वे मृत्यु तक इस पद पर रहे।
शिबू तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी हर पारी अल्पकालिक रही- 1. 2005 (2 मार्च - 11 मार्च): केवल 9 दिन तक मुख्यमंत्री रहे। उनकी सरकार बहुमत साबित नहीं कर सकी, और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
2. 2008-2009 (27 अगस्त 2008 - 12 जनवरी 2009): तमाड़ विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव हारने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
3. 2009-2010 (30 दिसंबर 2009 - 31 मई 2010): BJP ने समर्थन वापस ले लिया, जिसके कारण उनकी सरकार गिर गई।
शिबू ने यूपीए सरकार में तीन बार कोयला मंत्री के रूप में काम किया- 2004 (मई-जुलाई): चिरुडीह नरसंहार मामले में गिरफ्तारी वारंट के कारण इस्तीफा देना पड़ा।
2004-2005 (नवंबर 2004 - मार्च 2005): जेल से छूटने के बाद फिर से मंत्री बने, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के लिए इस्तीफा दिया।
2006 (जनवरी-नवंबर): शशिनाथ झा हत्या मामले में सजा के बाद इस्तीफा देना पड़ा। शिबू ने JMM को यूपीए और बाद में INDIA गठबंधन का हिस्सा बनाया, जिससे उनकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बढ़ी। उन्होंने आदिवासी हितों को संसद में मजबूती से उठाया और झारखंड की खनन नीतियों में सुधार की मांग की।
विरासत और योगदान: एक युग का अंत
शिबू सोरेन की विरासत को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है- 1. झारखंड राज्य का गठन: उनकी अगुवाई में JMM ने 1970 से 2000 तक चले आंदोलन के परिणामस्वरूप झारखंड राज्य की स्थापना की, जो आदिवासी अस्मिता का प्रतीक बना।
2. आदिवासी अधिकारों की रक्षा: उन्होंने आदिवासियों की जमीन, संस्कृति और स्वायत्तता की रक्षा के लिए जीवनभर काम किया। उनकी 'जंगल काटो' और 'खेत जोतो' जैसी रणनीतियाँ आज भी आदिवासी आंदोलनों में प्रेरणा देती हैं।
3. JMM की स्थापना और विस्तार: JMM को एक क्षेत्रीय पार्टी से राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। आज JMM झारखंड की सबसे मजबूत पार्टियों में से एक है।
4. सामाजिक सुधार: साहूकारी, शराबखोरी और गैर-आदिवासियों के शोषण के खिलाफ उनके आंदोलन ने आदिवासी समुदाय में सामाजिक जागरूकता लाई।
5. राजनीतिक नेतृत्व: उन्होंने आदिवासी हितों को संसद और सरकार में मजबूती से उठाया, जिससे झारखंड की आवाज राष्ट्रीय मंच पर गूंजी।
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