कर्नाटक में 100 लाशों का सच आया बाहर! कर्नाटका के दक्षिण कन्नड़ जिले में एक तालुक है बेल्थंगडी। इसी तालुक में स्थित है धर्मस्थल मंदिर। बेल्थंगडी को पहले ‘कुडुमा’ कहा जाता था तब ये एक छोटा सा गांव। लेकिन वक्त के साथ ये गाँव एक बड़े तीर्थ में बदल गया। धर्मस्थल मंदिर में पूजा होती है मंजुनाथ की, जो भगवान शिव का एक रूप माने जाते हैं। धर्मस्थल एक हिंदू मंदिर है लेकिन इसका मालिकाना हक एक जैन परिवार के पास है। ये थोड़ा कन्फ्यूज़िंग है इसे समझिए। करीब 800 साल पहले, इस मंदिर को एक जैन दंपति बिरमन्ना पेर्गड़े और उनकी पत्नी अम्मु बल्ललथी ने बनवाया था। और इसमें एक शिवलिंग की स्थापना की थी। तब से आज तक, इस मंदिर का सारा देखरेख जैन पेर्गड़े परिवार करता है। जिसे अब हेगड़े परिवार के नाम से जाना जाता है। मालिकाना हक भले ही जैन हेगड़े परिवार के पास हो लेकिन पूजा-पाठ का ज़िम्मा हिंदू वैष्णव ब्राह्मण पुजारियों के हाथ में है।
धर्मस्थल मंदिर… दूर से देखने पर शांत, पवित्र, और दिव्य लगता है। हजारों लोग हर रोज़ दर्शन के लिए आते हैं। कोई मन्नत मांगता है, कोई आशीर्वाद लेने आता है। लेकिन इस भव्यता और आस्था के पीछे एक खौफनाक सच्चाई दबी हुई थी। जो अब बाहर आ रही है। और उस सच्चाई की शुरुआत होती है एक आदमी की आवाज़ से। “मैंने वो लाशें देखीं… एक नहीं, कई… और मैं चुप रहा।” ये कहना उस आदमी का जो इस मंदिर में 16 साल तक सफाईकर्मी के तौर पर काम करता रहा। एक दलित मज़दूर, जो मंदिर के सबसे अंदरूनी हिस्सों में पहुंचता था, जहाँ आम श्रद्धालुओं की नज़र नहीं जाती। उसने बताया कि पहली बार 1998 में उसे एक लाश दिखाई गई। कहा गया “इस लाश को चुपचाप ठिकाने लगा दो।” जब उसने मना किया, तो उसका सुपरवाइज़र उस पर टूट पड़ा। पीटा गया। डराया गया। कहा गया “अगर मुंह खोला, तो तेरा भी यही हाल होगा। परिवार को भी जिंदा नहीं छोड़ेंगे।” उसने अपने परिवार के डर से ये किया और करता ही गया।
सफ़ाईकर्मचारी के मुताबिक साल 2010 में एक दिन उसे मंदिर के पिछवाड़े एक कोने में बुलाया गया। उसे नहीं पता था कि जो वो देखने जा रहा है, वो उसकी आत्मा में हमेशा के लिए छप जाएगा। एक मासूम बच्ची की लाश ज़मीन पर पड़ी थी। यूनिफॉर्म में थी यानी वो स्कूल से लौटी थी या ले जाई गई थी। पर यूनिफॉर्म अधूरी थी, स्कर्ट और अंडरगारमेंट ग़ायब थे। और जिस हालत में उसका शरीर मिला, उससे एक बात साफ़ थी उसके साथ दरिंदगी हुई थी। ज़बरदस्ती, क्रूरता और फिर गला घोंटकर उसकी हत्या। सुपरवाइज़र ने सख़्त आदेश दिया “इसे जल्दी दफना दो। बैग भी साथ ही डाल देना।” इस एक घटना ने उस आदमी के भीतर कुछ तोड़ दिया। लेकिन ये पहली या आखिरी लाश नहीं थी।
बीस साल की महिला की लाश, जिसका चेहरा तेजाब से जला हुआ था
एक और घटना, एक बीस साल की महिला की लाश, जिसका चेहरा तेजाब से जला हुआ था। इतनी बुरी तरह जलाया गया था कि चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था। वो लाश अखबार में लपेटी गई थी। और फिर उसे मंदिर परिसर के भीतर ही एक कोने में ले जाकर जला दिया गया। हर लाश के बाद एक रूटीन बन चुका था। रात को बुलाना, लाश दिखाना, आदेश देना कि दफना दो या जला दो जैसे कुछ हुआ ही नहीं। इस काम को कभी एक कोने में छिपाकर किया जाता, कभी मंदिर के बगीचे के आसपास।
सोचिए, एक आदमी जिसे रोज़ काम पर जाना है… और काम क्या है? कभी किसी बच्ची की लाश दफनाना, कभी किसी युवती की जली हुई लाश को मंदिर के पीछे जलाना। न कोई आवाज़, न कोई सवाल। क्योंकि उसे डर था अपने बच्चों का, बीवी का, अपने जीवन का। लेकिन उस डर से भी बड़ा बोझ था आत्मग्लानि का। वो बताता है कि ये काम करते हुए उसके दिल में एक पत्थर-सा जमता गया। लेकिन फिर भी चुप रहा। साल दर साल, लाश दर लाश… वो सबकुछ देखता रहा, कुछ बोल नहीं पाया। लेकिन साल 2014 में सब कुछ बदल गया, जब उसी सफाईकर्मी की नाबालिग रिश्तेदार के साथ यौन उत्पीड़न हुआ। ये वो पल था, जब उसके भीतर का डर गुस्से में बदलने लगा। वो समझ गया कि अब चुप रहना सिर्फ पाप नहीं, अपराध भी है। पर उस वक़्त भी उसने सीधे हमला नहीं किया क्योंकि जान बचाना ज़रूरी था। वो परिवार समेत भाग गया। मंदिर, गाँव, जिला सब छोड़कर किसी और राज्य में जाकर एक नई पहचान के साथ रहने लगा। एक आदमी अपनी ज़िंदगी की सच्चाई को इतने साल तक अंदर ही अंदर खौलाता रहा। उसने हर दिन खुद को कोसा, हर रात उन मासूम चेहरों की आंखों से आंख मिलाने की कोशिश की, जो अब इस दुनिया में नहीं थे। और ये सब इसलिए कि जिनके खिलाफ वो बोलना चाहता था, वे इतने ताकतवर थे कि सिर्फ आवाज़ उठाने से भी ज़िंदगी बर्बाद हो सकती थी।
सिद्धरमैया सरकार ने एक SIT का गठन किया है
अब, 2025 में, सालों की चुप्पी के बाद वो सामने आया है। क्यों? क्योंकि उसका कहना है “अब और नहीं सह सकता। वो मरी हुई बच्चियाँ, वो जली हुई औरतें… उनकी आंखें मुझे चैन से सोने नहीं देतीं। अब मैं सब बताऊंगा। पुलिस को हर जगह ले जाऊंगा जहां मैंने लाशें दफनाई थीं।” उसके पास तस्वीरें हैं, दफनाने की जगहों की जानकारी है, और एक गवाही है जो इस पूरे मंदिर सिस्टम को हिला सकती है। उसने खुद कहा है “मैं किसी भी टेस्ट के लिए तैयार हूं। पोलीग्राफ, नार्को, डीएनए… जो भी हो, मैं सच बताना चाहता हूं।” हो सकता अब आपके मन में ये सवाल आ रहा हो कि इस सफ़ाई कर्मचारी ने ये सच उजागर करने में इतनी देर क्यो लगा दी? तो यहाँ आपको ये जान लेना जरूरी है कि कर्नाटक के मंदिरों में एक बेहद मजबूत सामाजिक ढांचा काम करता है ब्राह्मणवादी पुजारियों का वर्चस्व। इन मंदिरों को सिर्फ पूजा-पाठ का स्थल मान लेना गलती होगी। ये एक सत्ता केंद्र हैं, जहां जाति व्यवस्था पूरी ताकत से जमी हुई है। और किसी दलित का इनके ख़िलाफ़ जाना मौत को दावत देने जैसा है।
अब इस केस की जांच के लिए सिद्धरमैया सरकार ने एक SIT का गठन किया है। जिसमें चार अनुभवी अफ़सरों को शामिल किया गया है डॉ. पुनव मोहंती, एमएन अनुचेत, सौम्यलता और जितेंद्र कुमार दयाम। ये चारों अधिकारी अलग-अलग जिलों और आपराधिक जांचों में अनुभवी माने जाते हैं। विशेष बात ये है कि SIT को सिर्फ इस एक केस की नहीं, बल्कि इस केस से जुड़े संभावित समान घटनाओं की भी जांच करने का अधिकार मिला है। यानी सफाईकर्मी द्वारा बताई गई सभी जगहों की फोरेंसिक जांच, मंदिर प्रशासन से जुड़े सभी लोगों की भूमिका की समीक्षा, पुलिस की अब तक की कार्यशैली की जांच, पीड़ितों की पहचान और न्यायिक प्रक्रिया शुरू कराना, और सबसे अहम अगर ज़रूरत पड़ी, तो पुरानी लाशों के अवशेषों की खुदाई और DNA परीक्षण भी। यह एक बेहद संवेदनशील जांच है, क्योंकि मामला सिर्फ अपराध का नहीं, आस्था का भी है। इसलिए फिलहाल जांच को “लो-प्रोफाइल” रखा जा रहा है। मीडिया को ज़्यादा अंदरूनी जानकारी नहीं दी जा रही, ताकि जांच पर असर न पड़े।
सवाल उठते हैं क्या SIT पर भरोसा किया जा सकता है? क्या इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ निष्पक्ष जांच मुमकिन है? और सबसे अहम क्या इस जांच का अंत केवल ‘सिफारिशों’ पर खत्म हो जाएगा, या सच में गिरफ्तारी होगी? क्योंकि जब भी किसी धार्मिक संस्थान या पावरफुल ट्रस्ट के खिलाफ कोई मामला सामने आता है, तो सिस्टम खुद-ब-खुद रक्षात्मक हो जाता है। जांच की दिशा मोड़ दी जाती है। मीडिया की दिलचस्पी गायब हो जाती है। गवाह पलट जाते हैं या गायब कर दिए जाते हैं। इसलिए इस केस में गवाह ने अपने सबूत सुप्रीम कोर्ट के वकील केवी धनंजय को सौंप दिए हैं, ताकि अगर उसे कुछ हो जाए, तो केस ख़त्म न हो। अब गेंद सरकार के पाले में है। SIT की टेबल पर 25 साल का बोझ रखा गया है। सवाल यह नहीं कि जांच होगी या नहीं, सवाल यह है क्या ये जांच सच में इंसाफ़ दिलाएगी, या फिर ये भी एक औपचारिक क़वायद बनकर रह जाएगी? सफाईकर्मी ने अपने हिस्से का काम कर दिया है। उसने सब बता दिया है यह जानते हुए कि उसकी जान को खतरा हो सकता है। वो किसी भी टेस्ट के लिए तैयार है। अब अगली बारी हमारी है। हम दर्शकों, पत्रकारों, समाज के हिस्सों की। क्या हम सवाल पूछेंगे? क्या हम इस केस को दबने नहीं देंगे? या हम भी वही करेंगे जो अब तक होता आया है। मंदिर में माथा टेकेंगे, और भूल जाएंगे कि उसी ज़मीन के नीचे कोई मासूम चीखती हुई दफनाई गई थी?