अधिकारियों का ये भी कहना है कि अगर किसी पुलिसवाले की ग़ैरमौजूदगी का कोई वाजिब कारण, जैसे कोई पारिवारिक मुश्किल या दुर्घटना सामने आता है, तो उस पर नरमी बरती जाएगी। लेकिन अगर ये साबित हो गया कि बिना वजह और जानबूझकर गायब हुए हैं, तो फिर कड़ी कार्रवाई तय है। अब यहाँ पर एक बात गौर करने वाली है कि प्रशासन कह रहा है कि “महाकुंभ के बाद उन्होंने छुट्टी नहीं ली थी बिना बताए वो घर चले गए और गायब हो गए” जब उन्होंने ऑफिसियल कोई छुट्टी ली ही नहीं तो प्रशासन को कैसे पता कि महाकुंभ के बाद वो घर चले गए? क्योंकि घर पहुँचने की तो उनकी कोई खबर है ही नहीं। ख़ुद प्रशासन उनसे संपर्क नहीं कर पा रहा है। और यही बात ये शक पैदा करती है कि कहीं कोई बड़ी घटना तो नहीं हुई जिसे प्रशासन छुपा रहा हो?
प्रशासन का रिकॉर्ड भी इसी तरह का रहा है। जब महाकुंभ में भगदड़ मची तो प्रशासन ने कहा की करीब 30-40 लोग मरें हैं। लेकिन BBC ने पाया कि 82 लोगों की मौत हुई है। इसके बाद PUCL यानी People’s Union for Civil Liberties की एक रिपोर्ट आई जिसमें बताया गया कि महाकुंभ में 1000 से लोग लापता हुए जो अब तक नहीं मिले। साथ ही PUCL की उत्तर प्रदेश state Unit ने अपनी जांच में पाया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने मौतों की वास्तविक संख्या छिपाने के लिए कई तरीकों का इस्तेमाल किया था। शवों को दो अलग-अलग पोस्टमार्टम केन्द्रों में भेजा गया था और कुछ मामलों में भी हेरफेर किया गया है कि कौन सा शव कहाँ से मिला और कितनी तारीख़ को मिला। जब स्वरूप रानी अस्पताल में PUCL के सदस्यों ने रजिस्टर में अज्ञात मृतकों की तस्वीरें देखीं। शवों की हालत देखकर साफ पता चल रहा था कि इन लोगों की मौत कुचल कर हुई है।
इसके बाद ही प्रशासन अस्पताल में एक नोटिस लगा दिया गया कि आप शवों की तस्वीर नहीं ले सकते ना ही उन्हें देख सकते हैं। साथ ही पोस्टमार्टम सेंटर पर भारी संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया था। किसी भी व्यक्ति को अंदर जाने की अनुमति नहीं थी, न ही किसी अधिकारी से बातचीत करने की अनुमति है। यहाँ तक कि मृत व्यक्ति के परिजनों को भी शवों को देखने नहीं दिया जा रहा है। PUCL रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार की एक महिला तीर्थयात्री सुनैना देवी लापता थी और उसके परिजनों को पोस्टमार्टम केंद्र से बार-बार लौटा दिया गया था। लेकिन जब वे एक शक्तिशाली व्यक्ति के हस्तक्षेप से पोस्टमार्टम केंद्र में अंदर जाने में सफल हुए, तो वे सुनैना देवी का शव खोजने में सफल हो गए।
यह एक बड़े प्रशासनिक फेलियर का संकेत है?
PUCL के सदस्यों ने स्वरूप रानी अस्पताल और अन्य पोस्टमॉर्टम सेंटर पर लगे लापता लोगों के विवरण की तस्वीरें खींची और उसमें दिए गए मोबाइल नंबरों पर संपर्क किया। तो उन्होंने पाया ये लोग अभी भी अपने घर नहीं लौटे, न किसी अस्पताल में मिले, और न ही उनकी मौत की पुष्टि हुई। कुछ की तो गुमशुदगी की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की गई। और जो परिवार उन्हें खोजने निकले, उन्हें भी आज तक कोई जवाब नहीं मिला। अब सवाल ये है कि जब आम नागरिकों की इतनी बड़ी संख्या मेला समाप्त होने के बाद अचानक गायब हो सकती है, तो क्या ये संभव नहीं कि वही हाल कुछ पुलिसकर्मियों का भी हुआ हो? क्या ये 53 पुलिसवाले वाकई ‘अनुपस्थित’ हैं या फिर वो भी उन गायब लोगों की उसी लंबी लिस्ट में शामिल हैं, जिन्हें आज भी सरकार ‘ट्रेस’ नहीं कर पाई? क्या यह केवल कुछ पुलिसवालों की व्यक्तिगत लापरवाही है, या फिर यह एक बड़े प्रशासनिक फेलियर का संकेत है? इससे भी अहम सवाल ये है कि ये कब पता चला कि ये पुलिसकर्मी लापता हैं? कुंभ मेला खत्म हुए महीनों हो चुके हैं, और जांच अभी तक शुरू ही नहीं हुई है। यानी काफी वक्त बीत चुका है ऐसे में अगर कोई पुलिसकर्मी किसी मानसिक तनाव या हादसे का शिकार हुआ हो, तो अब तक उसके बारे में जानकारी मिलना लगभग नामुमकिन है। यानी हमने सिर्फ़ पुलिसकर्मी नहीं खोए, बल्कि उन्हें ढूँढने का समय भी खो दिया।
पुलिसकर्मियों के ‘ग़ायब’ होने की खबरें गुमशुदा इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ रही
ये भी ध्यान रखने वाली बात है कि कुंभ जैसी ड्यूटी कोई आम तैनाती नहीं होती। इसमें तैनात पुलिसकर्मियों पर दिन-रात का दबाव, भूख-प्यास, भीड़ का शोर, और लगातार अलर्ट पर रहने जैसी स्थिति होती है। क्या प्रशासन ने यह सुनिश्चित किया कि इन पुलिसवालों को समय पर रोटेशन ड्यूटी, विश्राम, और मानसिक स्वास्थ्य की सुविधाएं दी जा रही हैं? या फिर ये सब लोग बस मशीनों की तरह इस्तेमाल हुए? एक और ज़रूरी पहलू है, क्या इन 53 में से किसी ने ड्यूटी के दौरान कोई शिकायत दी थी? कोई मेडिकल इमरजेंसी, परिवार में संकट, मानसिक तनाव? महाकुंभ ख़त्म हुए महीनों बीत चुके हैं।
आम श्रद्धालुओं की गुमशुदगी की कहानियाँ अब भी अधूरी हैं, और अब पुलिसकर्मियों के ‘ग़ायब’ होने की खबरें इस गुमशुदा इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ रही हैं। लेकिन इतने गंभीर मामले पर अब तक कोई हाई लेवल जांच कमिटी नहीं बनाई गई आख़िर क्यों? क्या यह महज एक संयोग है कि 53 पुलिसकर्मियों की गैरहाजिरी को बस विभागीय जांच के भरोसे छोड़ दिया गया है? क्या इस बात से सरकार डर रही है कि अगर उच्चस्तरीय जांच बैठी, तो यह मामला मीडिया और जनचर्चा में ज़्यादा उछल जाएगा? क्या सरकार इस बात से चिंतित है कि एक खुली, स्वतंत्र जांच उसकी व्यवस्थागत नाकामी और प्रशासनिक लापरवाही को उजागर कर देगी? क्यों आज तक किसी वरिष्ठ अधिकारी को इस मामले की ज़िम्मेदारी लेने के लिए सामने नहीं लाया गया? क्यों राज्य सरकार की ओर से अब तक कोई औपचारिक ब्रीफिंग नहीं हुई? और क्यों न ही किसी मंत्रिमंडल स्तर की चर्चा इस मुद्दे पर दिखाई दी? क्यों राज्य सरकार इस बात पर पर्दा डाले हुए है कि इन पुलिसकर्मियों का क्या हुआ? क्या वो कहीं डिप्रेशन में चले गए? क्या वो हादसों के शिकार हुए? या फिर प्रशासन की ढिलाई, भीड़ का प्रबंधन, और कुप्रबंधन का शिकार? ये राजनीतिक चुप्पी है या फिर कोई सिस्टमेटिक कवर-अप?