कांवड़ यात्रा के नाम पर स्कूलों की छुट्टी, क्या ऐसे बनेगा भारत विश्वगुरु?

हर साल जुलाई-अगस्त आते ही उत्तर प्रदेश में स्कूल बंद होने लगते हैं, वजह होती है कांवड़ यात्रा। इस साल भी यही हुआ, लगभग एक हफ़्ते के लिए राज्य के कई जिलों में स्कूलों की छुट्टियाँ घोषित कर दी गईं। सरकार ने तर्क दिया है कि कांवड़ यात्रा के चलते रास्तों में भीड़ होगी, ट्रैफिक रहेगा, सुरक्षा बल तैनात होंगे, इसलिए स्कूल चलाना मुश्किल होगा। यही “मुस्किल” हर साल बच्चों की पढ़ाई रुकवा देती है? जैसे पढ़ाई कोई ऑप्शनल चीज़ हो और धर्म का उत्सव राष्ट्रीय आपातकाल। राज्य सरकार इतनी असमर्थ है कि वो धार्मिक आयोजन और स्कूली शिक्षा दोनों को एक साथ मैनेज नहीं कर सकती। एक हफ्ते के लिए स्कूल बंद कर देना, वो भी हर साल, इस बात का संकेत है कि यूपी सरकार ने प्राथमिकता तय कर ली है। आस्था की व्यवस्था पहले है, बच्चों की पढ़ाई बाद में। वैसे तो सरकार के इस फैसले से सभी बच्चों का नुकसान होता है लेकिन सबसे बड़ा नुकसान उठाते हैं वो बच्चे जो सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। उनके पास न तो ऑनलाइन क्लास है, न प्राइवेट ट्यूशन का सहारा, न ही कोई लाइब्रेरी। जब स्कूल बंद होता है, तो उनके लिए पढ़ाई सचमुच बंद हो जाती है। क्या ऐसे शिक्षा का स्तर सुधरेगा? अफसर, मंत्री, पुलिस सब इस बात पर सहमत रहते हैं कि सबसे आसान तरीका भीड़ संभालने का यही है कि स्कूलों को ही ताला मार दो। स्कूल बंद करना योगी सरकार का पसंदीदा काम बन गया है। इसलिए हज़ारों स्कूलों को तो योगी सरकार ने हमेशा के लिए बाद कर दिया है। 

इस साल फरवरी में केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया था कि पिछले 10 साल देशभर में तक़रीबन 89 हज़ार सरकारी स्कूल बंद हुए हैं। जिनमें क़रीब 25 हज़ार स्कूल अकेले उत्तर प्रदेश से थे। अगर डेटा देखकर घबराहट हो रही है तो और सुनिए अभी 5 हज़ार स्कूल और बंद होंगे। आपके दिल पर ज़्यादा लोड ना आए इसलिए योगी सरकार ने स्कूल बंद करने की इस स्कीम को नाम दिया है पेयरिंग स्कीम। साल 2015-16 में उत्तर प्रदेश में करीब 1 लाख 62 हज़ार प्राइमरी स्कूल थे। जो साल 2021-22 के आते आते 1 लाख 40 हज़ार ही रह गए। यानी 2015-16 के मुक़ाबले ये संख्या कम हो गई। सरकार ने इन स्कूलों को बंद करने के पीछे तर्क दिया कि इन स्कूलों में 50 से भी कम बच्चे पढ़ रहे थे।

5000 और स्कूलों को बंद करेगी यूपी सरकार 


अब सरकार ऐसे ही 5000 और स्कूलों को बंद करेगी। ओह….माफ करिए उनकी दूसरे स्कूलों के साथ पेयरिंग करेगी। सरकार का तर्क है कि जिन स्कूलों में बच्चों की संख्या 50 से कम है, उन्हें बंद कर देना ही बेहतर है। लेकिन सवाल ये है कि आख़िर इन स्कूलों में बच्चे हैं क्यों नहीं? क्या बच्चों की संख्या अपने-आप कम हो गई, या इसके पीछे सरकार की नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं? ETV-भारत न्यूज़ वेबसाइट के अनुसार U-DISE पोर्टल के आधार पर जो आंकड़े सामने आए हैं, वो डराने वाले हैं। आंकड़ों के मुताबिक, प्रदेश में करीब 30,000 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय ऐसे हैं, जो जर्जर हालत में हैं। सबसे बुरी हालत हरदोई ज़िले की है जहाँ 742 स्कूल पूरी तरह जर्जर हैं। इसके बाद उन्नाव और जौनपुर में 690-690, बाराबंकी में 674, गोरखपुर में 643, सीतापुर में 641 और बलिया में 633 स्कूलों की स्थिति बेहद खस्ता है। इन स्कूलों में बच्चों के लिए न तो ढंग की बिल्डिंग है, न शौचालय, न पीने का पानी और न ही चारदीवारी। कभी मिड-डे मील का सामान नहीं आता, तो कभी छत टपकती है। कहीं बिजली नहीं। कभी स्कूल ही बरसात में डूब जाता है। तो ऐसे स्कूलों में कोई भी अपने बच्चों को क्यों भेजेगा? सरकार के पास स्कूल सुधारने का माद्दा तो नहीं है, लेकिन स्कूल बंद करने का तर्क है। 

अब आते हैं सबसे बड़ी समस्या पर। यूपी में फिलहाल 1 लाख 20 हजार शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। जब स्कूल में शिक्षक ही नहीं होंगे तो पढ़ाई कैसे होगी? जिन स्कूलों में शिक्षक पोस्टेड हैं, वहाँ उनकी ड्यूटी चुनाव, सर्वे, योजना या धार्मिक आयोजनों में लगा दी जाती है। स्कूल चलता है सिर्फ रिकॉर्ड में। क्लासरूम बंद होता है, मैदान सूना रहता है। फिर जब बच्चों की पढ़ाई नहीं होती, तो परिवार वाले अपने बच्चों को या तो प्राइवेट स्कूलों में डाल देतें है या फिर पढ़ाई ही छुड़वा देतें हैं। यानी धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों बच्चे आना ही बंद कर देते हैं। फिर एक दिन शासन की रिपोर्ट आती है “छात्र संख्या कम है, स्कूल बंद कर दिया जाए।”

कावड़ यात्रा पर छुट्टियाँ घोषित, बच्चों की मौज


बाक़ी जो स्कूल चल रहे हैं उनमें भी बार बार सुरक्षा का हवाला देकर छुट्टियाँ घोषित कर दी जाती हैं और उसे नाम दिया जाता है “बच्चों की मौज।” उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा अब सिर्फ़ एक धार्मिक परंपरा नहीं रही, ये एक सरकार प्रायोजित आयोजन बन चुकी है। हर साल जैसे ही सावन आता है, प्रदेश का पूरा सरकारी तंत्र एक ही दिशा में दौड़ता है – कांवड़ियों की सेवा। ट्रैफिक पुलिस से लेकर ज़िला प्रशासन तक, स्वास्थ्य विभाग से लेकर नगर निगम तक, हर विभाग को आदेश होता है “कांवड़ियों की सुविधा में कोई कमी नहीं आनी चाहिए।” कुछ जिलों में तो बाकायदा मुख्य सड़कों पर स्पेशल रूट बनते हैं। जगह-जगह शिविर, मेडिकल कैंप, मोबाइल टॉयलेट, मिस्ट फैन, चूना-पानी तक डाला जाता है। और ये सब फंडिंग आती है सरकारी खज़ाने से। 

ज़िला प्रशासन भंडारों को सुविधा देता है, पुलिस उन्हें एस्कॉर्ट करती है, नगर निगम साफ़-सफ़ाई सुनिश्चित करता है यानी जो सरकारी तंत्र आम दिनों में जनता की शिकायतों पर बहरे बना रहता है, वो सावन में कांवड़ियों की सेवा में झुक कर सलाम करता है। एक तरह से ये धार्मिक आस्था नहीं, आस्था का प्रदर्शन बन गया, जो अगर न किया जाए तो मानो अपराध हो। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद इस धार्मिक आयोजन से जुड़ते हैं। कभी कांवड़ियों पर फूल बरसातें, कभी हालात का जायजा लेते हैं। एक तरफ़ स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। दूसरी तरफ़ कावड़ियों पर हेलिकॉप्टर से फूल बरसाने के लिए बजट और तंत्र दोनों उपलब्ध हैं। प्रशासन की सह से कावड़ियों का उन्माद दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है। भगवा रंग के झंडे, ज़ोर-ज़ोर से बजते डीजे, बाइक पर रफ्तार भरते युवाओं के झुंड और दोनों तरफ़ खड़े पुलिसवाले। ये दृश्य एक धार्मिक यात्रा का कम और शक्ति-प्रदर्शन का ज़्यादा लगता है।

170 से ज़्यादा कांवड़ियों के खिलाफ मामले दर्ज


2025 की कावड़ यात्रा शुरू हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं लेकिन फिर भी 11 जुलाई से 16 जुलाई के बीच 170 से ज़्यादा कांवड़ियों के खिलाफ मामले दर्ज किए जा चुके हैं। इनमें झगड़ा, तोड़फोड़, मारपीट, महिलाओं से बदसलूकी, ट्रैफिक रोकने, और सड़क पर दहशत फैलाने जैसे केस शामिल हैं। ये वो केस हैं जो दर्ज हो गए। जबकि ज़मीनी हकीकत ये है कि पुलिस हर बार कांवड़ियों पर कार्रवाई करने से पहले दस बार सोचती है क्योंकि ऊपर से दबाव होता है, और भीड़ की प्रतिक्रिया का डर भी। असल में, सरकार और प्रशासन ने इस यात्रा को इतना ‘संवेदनशील’ बना दिया है कि अब कोई अधिकारी या पुलिसकर्मी चाहकर भी सख़्ती नहीं दिखा पाता। उन्हें डर है कि अगर किसी कांवड़िए से सख़्ती हो गई तो वीडियो वायरल होगा, मीडिया हेडलाइन बनाएगा कि “भक्तों पर अत्याचार”, और फिर आला अधिकारी सफाई देते रहेंगे। इसलिय अक्सर पुलिस चुपचाप किनारे खड़ी रहती है। अगर कोई ये तक कह दे कि तुम कावड़ लेने मत जाना ज्ञान का दीपक जलाना उस पर भी FIR दर्ज हो जाती है। 

इस पूरे मसले में एक बात बहुत साफ है, उत्तर प्रदेश की सरकार और प्रशासन ने शिक्षा को अपनी प्राथमिकता की सूची में सबसे नीचे धकेल दिया है। कांवड़ यात्रा श्रद्धा का मामला हो सकती है, लेकिन जब इसकी वजह से हर साल लाखों बच्चों की पढ़ाई रुक जाए, तो सवाल तो बनता है। सवाल ये नहीं है कि यात्रा हो या नहीं हो, सवाल ये है कि सरकार इतनी कमज़ोर हो गई है कि वह शिक्षा और आस्था दोनों को एक साथ नहीं संभाल सकती। आज हालात ये हैं कि स्कूल चलाना सरकार को बोझ लगता है, लेकिन धार्मिक उत्सवों पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाना जनता के पैसा का सही इस्तेमाल लगता है। यही वजह है कि आज स्कूलों को बंद करना सरकार की नीति बन गई है या तो स्थायी रूप से “पेयरिंग स्कीम” के नाम पर, या फिर हर सावन में “सुरक्षा व्यवस्था” के नाम पर। जब सरकारें ही शिक्षा को सबसे पहले बलि का बकरा बना दे, तो फिर उस राज्य का भविष्य कुछ लोगों की आस्था और बाकी की लाचारी के बीच फंसा रह जाता है। सवाल आस्था से नहीं है सवाल व्यवस्था से है। सवाल त्योहार से नहीं है सवाल तालीम से है। सवाल ये नहीं कि स्कूल बंद क्यों हुए सवाल ये है कि हर बार स्कूलों को ही क्यों बंद किया जाता है?

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