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पीयूष पांडे का निधन: विज्ञापन जगत की एक युगांतकारी हस्ती विदा

 24 Oct 2025

भारत के विज्ञापन उद्योग ने आज एक ऐसा सितारा खो दिया है जिसने न सिर्फ ब्रांड्स के चेहरे बदले बल्कि आम लोगों की ज़ुबान और दिलों तक अपनी पहुँच बनाई। विज्ञापन गुरु Piyush Pandey का गुरुवार को निधन हो गया।की उम्र 70 वर्ष थी।  वे लंबे समय तक Ogilvy India के साथ जुड़े रहे और भारतीय विज्ञापन भाषा और शैली को एक नए अंदाज़ में पूरी तरह विकसित किया।


उनके जाने से न सिर्फ एक आलोचक-विचारक का सन्नाटा छाया है, बल्कि एक ऐसी क्रिएटिव दुनिया को विराम मिला है जिसमें उन्होंने ये सिखाया कि विज्ञापन सिर्फ उत्पाद नहीं बल्कि भावनाओं का संवाद है। उनकी विज्ञापन-कहानियाँ, संवाद और दृश्य-प्रभाव भारतीय संस्कृति में गढ़ गए।

पीयूष पांडे ने विज्ञापन की भाषा बदली और दिलों में जगह बनाई


पीयूष पांडे ने 1982 में विज्ञापन उद्योग में कदम रखा और बहुत जल्दी उन्होंने देखा कि भारतीय उपभोक्ता केवल विदेशी भाषा या ग्लोबल स्टाइल के विज्ञापनों से नहीं जुड़ते। उन्होंने हिंदी, लोक-भाषा और भारतीय रोज़मर्रा की भावनाओं को विज्ञापन में स्थान दिया।

उनका मानना था कि “कहीं-न-कहीं आपको लोगों के दिल को छूना ही पड़ेगा” जैसा कि उन्होंने कहा भी था। उन्होंने अभियान-निर्माण में रचनात्मकता, ‘भारतीयता’ और भाव की ताकत को प्रमुख बनाया। उदाहरण के लिए, उनकी गिरता मुस्कान, गहरी सोच तथा सादगी ने भारतीय विज्ञापन को उस बड़े मंच पर पहुँचाया जहाँ वह आज है।

उनके बदलाव जरूरी थे क्योंकि हिंदी-भाषी उपभोक्ता-वर्ग तेजी से बढ़ रहा था, और उन्होंने उस वर्ग को विज्ञापन-भूमिका में पूरी तरह महत्व दिया। इसके चलते विज्ञापन सिर्फ ब्रांड प्रचार नहीं बल्कि सम्मिलित संस्कृति का हिस्सा बन गया।

पीयूष पांडे की विरासत: फीविकॉल से लेकर ‘अब की बार, मोदी सरकार’ तक


अगर कोई अभियान उनकी क्रिएटिव क्षमता का प्रमाण है, तो उसकी सूची लंबी है। उन्होंने Fevicol के “तोड़ो नहीं, जोड़ो” जैसे हास्य-भावुक विज्ञापन बनाए, Cadbury के “कुछ खास है” जैसे अभियान को जीवन दिया, साथ ही Asian Paints के “हर खुशी में रंग लाए” जैसे स्लोगन को जन-जन तक पहुँचाया। इन्हीं उन्नत प्रयासों के बीच उनकी सबसे चर्चित उपलब्धि शायद वह राजनीतिक स्लोगन है—“अब की बार, मोदी सरकार” जिसमें उन्होंने भारतीय राजनीतिक-विज्ञापन क्षेत्र में भी अपनी छाप छोड़ी।

यह बताता है कि उन्होंने विज्ञापन को उत्पाद-बिक्री की साधन से आगे बढ़ाकर भावनाओं, सामूहिक सोच और सामाजिक साझा भाषा के स्तर तक पहुँचाया। उनके द्वारा रची गई विज्ञापन-कहानियाँ आज तक याद की जाती हैं और आने वाली पीढ़ियों के क्रिएटिव्स के लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं।

पीयूष पांडे के जाने से विज्ञापन उद्योग में छाया शोक और भविष्य की चुनौतियाँ


पीयूष पांडे के निधन की खबर मिलते ही पूरे उद्योग में शोक-मौसम छा गया। Anand Mahindra ने उन्हें याद करते हुए कहा कि उनका नहीं सिर्फ काम बल्कि उनका उत्साह, हँसी और जीवन‐प्रेम भी प्रेरणा का स्रोत था। उनकी कंपनी और सहयोगियों ने भी कहा है कि उनका सृजन-विचार, परिचालन शैली व मानवता-भाव अब अधूरा सा लग रहा है।

इस क्षति का मतलब सिर्फ एक व्यक्‍ति का नहीं है बल्कि उस युग का अंत है जिसमें विज्ञापन सिर्फ ग्लैमरस फॉर्मेट नहीं था, बल्कि भारतीय जीवन की कहानियों का आरंभ स्थल था। अब चुनौती यह है कि आने वाले क्रिएटिव्स उनके द्वारा स्थापित उस उच्च स्तर को बनाए रखें—जहाँ भावानुभूति, सादगी और गहराई विज्ञापन का मूल हो।

विज्ञापन उद्योग के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ

  • भारतीय भाषा-विविधता को समझकर व्यवहार्यता देना।

  • ब्रांड-कहानी और उपभोक्ता-भावनाओं के बीच संतुलन बनाना।

  • डिजिटल-युग में रचनात्मकता की तेज़ी तथा संदेश की गहराई को बरक़रार रखना।

पीयूष पांडे ने यह दिखा दिया था कि विज्ञापन केवल व्यापार नहीं, बल्कि संस्कृति और संवाद भी है। इसलिए इस नौकर-गोतर की कमी को महसूस करना स्वाभाविक है।