एकल माताओं के बच्चों को ओबीसी प्रमाण पत्र देने से जुड़ा मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जिस पर अदालत ने गंभीरता से संज्ञान लेते हुए कहा कि यह एक "बेहद जरूरी और संवेदनशील मुद्दा" है और इस पर विस्तृत सुनवाई की आवश्यकता है।
दिल्ली निवासी संतोष कुमारी द्वारा दायर याचिका में यह मांग की गई है कि यदि कोई महिला ओबीसी समुदाय से है और अकेले अपने बच्चे का पालन-पोषण कर रही है, तो उस बच्चे को ओबीसी सर्टिफिकेट मिलना चाहिए, भले ही पिता की कोई भूमिका न हो या उसकी पहचान ज्ञात न हो।
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस के वी. विश्वनाथन और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। अदालत ने कहा कि यह मामला महिलाओं और बच्चों के संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “अगर तलाकशुदा या परित्यक्त महिला अपने बच्चे का पालन-पोषण कर रही है, तो उसे जाति प्रमाण पत्र के लिए पूर्व पति से प्रमाण पत्र लाने को कहना अव्यावहारिक और अन्यायपूर्ण है।”
कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि आने वाली सुनवाई में अन्य राज्य सरकारों को भी पक्षकार बनाया जा सकता है, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि भारत के विभिन्न हिस्सों में इस मामले में क्या नीति अपनाई जाती है। कोर्ट ने यह भी पूछा कि यदि विवाहित दंपति में से केवल पत्नी ओबीसी है, और पति नहीं, तो क्या उस स्थिति में बच्चे को ओबीसी सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा?
इस सवाल पर राज्यों को स्पष्ट नीति और जवाब तैयार रखने के लिए कहा गया है।
सुनवाई के दौरान पीठ ने एक पुराने फैसले का हवाला भी दिया, जिसमें कहा गया था कि एससी/एसटी मामलों में मां के जाति प्रमाण पत्र के आधार पर बच्चे को भी वैसी ही श्रेणी में रखा जा सकता है। याचिका में सवाल उठाया गया कि यदि एससी/एसटी वर्ग के लिए यह संभव है, तो ओबीसी वर्ग के लिए भेदभाव क्यों? याचिकाकर्ता संतोष कुमारी ने कहा कि सिर्फ पैतृक जाति के आधार पर प्रमाण पत्र देने की नीति एकल माताओं और उनके बच्चों के मौलिक अधिकारों का हनन है। उन्होंने यह भी पूछा कि यदि कोई महिला किसी बच्चे को गोद लेती है, तो वह कैसे उसके जैविक पिता का प्रमाण पत्र दे सकती है?