भारत इस समय दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जिसकी जनसंख्या करीब 1.5 अरब तक पहुंच चुकी है। यह संख्या केवल बड़ी प्रतीत नहीं होती, बल्कि इसके साथ कई जटिल समस्याएं और चुनौतियां जुड़ी हुई हैं। बढ़ती आबादी के कारण संसाधनों की उपलब्धता पर दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके परिणामस्वरूप जल, भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो रही है। अनुमान है कि अगले दो दशकों में भारत की आबादी बढ़कर 1.7 अरब तक पहुंच सकती है, लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट का सिलसिला शुरू हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र ने इस संभावित गिरावट को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 2065 तक भारत की जनसंख्या घटने लगेगी। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत की औसत जन्मदर वर्तमान में 1.9 पर आ गई है, जो रिप्लेसमेंट लेवल 2.1 से नीचे है। रिप्लेसमेंट लेवल वह स्तर है, जिस पर किसी देश की जनसंख्या स्थिर रहती है। विशेषज्ञों का मानना है कि जन्मदर के इस स्तर पर बने रहने से मौजूदा पीढ़ी के बाद जनसंख्या में गिरावट स्पष्ट रूप से दिखाई देगी।
इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि 1960 के दशक में भारत की जनसंख्या 43 करोड़ थी और उस समय प्रति महिला औसतन 6 बच्चों का जन्म होता था। आज यह आंकड़ा घटकर 2 बच्चों प्रति महिला तक आ गया है। इस बदलाव का श्रेय शिक्षा के प्रसार, परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता और महिलाओं के बढ़ते सशक्तिकरण को दिया जा सकता है।
रिपोर्ट में बिहार के एक परिवार की तीन पीढ़ियों की महिलाओं का सर्वेक्षण शामिल है, जो सोच और व्यवहार में बदलाव को दर्शाता है। 64 वर्षीय सरस्वती देवी बताती हैं कि उनके समय में परिवार नियोजन के उपायों पर कोई चर्चा नहीं होती थी। बड़े परिवार को भगवान का आशीर्वाद माना जाता था। सरस्वती के 5 बेटे हैं और वह कहती हैं कि उस समय कम बच्चे होने पर इसे बीमारी का परिणाम समझा जाता था।
सरस्वती की बहू अनीता, जो 42 वर्ष की हैं, ने बताया कि उनकी शादी 18 साल की उम्र में हुई और उनके 6 बच्चे हैं। अनीता कहती हैं कि इतने बच्चे उनके इच्छा के विरुद्ध हुए क्योंकि उनके पति और सास बेटा चाहते थे।
अनीता की 26 वर्षीय बेटी पूजा ने इस सोच में आए बदलाव को स्पष्ट किया। वह कहती हैं कि वह केवल दो बच्चे पैदा करना चाहती हैं ताकि उन्हें बेहतर शिक्षा और जीवन स्तर प्रदान कर सके। पूजा का कहना है कि बड़े परिवार की जिम्मेदारियां न केवल आर्थिक बोझ बढ़ाती हैं, बल्कि बच्चों के समग्र विकास पर भी असर डालती हैं।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो 2065 तक भारत नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि का सामना कर सकता है। यह स्थिति आर्थिक, सामाजिक और बुनियादी ढांचे के लिए नई चुनौतियां लेकर आएगी।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस समय भारत की जनसंख्या वृद्धि मात्रात्मक है, जबकि इसे गुणात्मक होना चाहिए। जन्मदर में कमी के बावजूद वर्तमान आबादी इतनी अधिक है कि आने वाले दशकों तक जनसंख्या में गिरावट का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखेगा। लेकिन मौजूदा पीढ़ी के गुजरने के बाद यह संकट उभरकर सामने आएगा।
सरकार और नीति निर्माताओं के लिए यह एक संकेत है कि उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन के क्षेत्र में और अधिक प्रयास करने होंगे। यह जरूरी है कि परिवार नियोजन के उपाय और जागरूकता हर व्यक्ति तक पहुंचे। इसके साथ ही, बच्चों के बेहतर विकास और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए ठोस कदम उठाए जाएं।
भारत में इस समय एक बदलाव की बयार चल रही है, जहां छोटे परिवारों को प्राथमिकता दी जा रही है।