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जस्टिस शेखर यादव विवाद: सुप्रीम कोर्ट ने जांच रोकी, राज्यसभा ने संवैधानिक अधिकार का दिया हवाला

 30 Jul 2025

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ प्रस्तावित इन-हाउस जांच प्रक्रिया को रद्द कर दिया है। यह निर्णय राज्यसभा के पत्र के बाद लिया गया, जिसमें बताया गया था कि इस मामले में जांच और कार्रवाई का विशेषाधिकार केवल राज्यसभा के सभापति और संसद को है। जस्टिस शेखर यादव ने दिसंबर 2024 में विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में मुस्लिम समुदाय और शरीयत कानून पर विवादित बयान दिए थे, जिसके बाद यह मामला तूल पकड़ गया। राज्यसभा द्वारा भेजे गए पत्र में कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत किसी न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया शुरू करने का अधिकार राज्यसभा के सभापति के पास है। इसके साथ ही, संसद और राष्ट्रपति ही इस मामले में अंतिम निर्णय ले सकते हैं। इस पत्र के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यादव के आचरण की इन-हाउस जांच करने की योजना को रद्द कर दिया।


 शेखर यादव के खिलाफ राज्यसभा के 55 सदस्यों ने हस्ताक्षरित नोटिस दिया था, जिसमें उन्हें उनके पद से हटाने की मांग की गई थी। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने फरवरी 2025 में इस नोटिस को सार्वजनिक किया और सुप्रीम कोर्ट को सूचित करने के निर्देश दिए। इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि इस मुद्दे पर आगे की कार्रवाई न्यायपालिका के बजाय विधायिका के दायरे में होगी। जस्टिस शेखर यादव के बयान, जिनमें उन्होंने कहा था कि "देश की व्यवस्था बहुसंख्यकों के हिसाब से चलनी चाहिए," ने समाज में सांप्रदायिक तनाव पैदा कर दिया था। इसके अलावा, उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड का समर्थन करते हुए शरीयत कानून को निशाने पर लिया, जिससे विवाद और गहरा गया। सार्वजनिक मंच पर इस प्रकार की टिप्पणियों के कारण जस्टिस यादव पर न्यायिक मर्यादाओं के उल्लंघन का भी आरोप लगा। 

 सूत्रों के अनुसार, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की रिपोर्ट के आधार पर जस्टिस यादव के बयानों की जांच के लिए प्रक्रिया शुरू करने का निर्णय लिया था। लेकिन, मार्च 2025 में राज्यसभा सचिवालय द्वारा भेजे गए पत्र के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी जांच प्रक्रिया रोक दी। विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में दिए गए जस्टिस यादव के बयानों ने न केवल न्यायपालिका बल्कि समाज में भी बड़े पैमाने पर चर्चा को जन्म दिया। उनके बयानों को नफरत फैलाने वाला और सांप्रदायिक विद्वेष भड़काने वाला माना गया। इस विवाद के चलते न्यायपालिका और विधायिका के बीच अधिकारों और प्रक्रियाओं को लेकर सवाल उठने लगे। राज्यसभा ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुसार, न्यायाधीशों के आचरण और पद से हटाने की प्रक्रिया पूरी तरह से संसद और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आती है।