दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। रिपोर्ट में छह वर्षों के दौरान राजधानी की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में गंभीर कुप्रबंधन, वित्तीय लापरवाही और जवाबदेही की कमी उजागर हुई है। इस रिपोर्ट ने दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य क्षेत्र में किए गए दावों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं, जिससे सरकार की कार्यप्रणाली पर बहस छिड़ गई है। CAG रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली के 14 अस्पतालों में अब तक ICU की सुविधा उपलब्ध नहीं है, जबकि 12 अस्पतालों में एंबुलेंस तक नहीं हैं। यही नहीं, आम आदमी पार्टी (AAP) सरकार की महत्वाकांक्षी ‘मोहल्ला क्लीनिक’ योजना भी सुविधाओं की कमी से जूझ रही है। कई मोहल्ला क्लीनिकों में शौचालय तक नहीं हैं, जिससे मरीजों और डॉक्टरों को असुविधा का सामना करना पड़ता है।
कोविड फंड का सही इस्तेमाल नहीं, करोड़ों की राशि रह गई बिना उपयोग
रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि केंद्र सरकार ने कोविड-19 से निपटने के लिए दिल्ली सरकार को 787.91 करोड़ रुपये की राशि प्रदान की थी, लेकिन इसमें से केवल 582.84 करोड़ रुपये ही खर्च किए गए। बाकी करोड़ों रुपये बिना उपयोग के रह गए, जबकि महामारी के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी किल्लत देखी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि अस्पतालों में ऑक्सीजन, बेड और मेडिकल सप्लाई की कमी के कारण मरीजों को परेशानी का सामना करना पड़ा।
स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए मिले फंड की अनदेखी केवल कोविड तक ही सीमित नहीं रही। रिपोर्ट के मुताबिक, स्वास्थ्य कर्मचारियों की भर्ती और वेतन के लिए आवंटित 52 करोड़ रुपये में से 30.52 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किए गए। इसका सीधा असर महामारी के दौरान मरीजों को समय पर इलाज न मिलने के रूप में सामने आया। इसी तरह, दवाओं, PPE किट और अन्य मेडिकल सुविधाओं के लिए मिले 119.85 करोड़ रुपये में से 83.14 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं हुए, जिससे स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराई रही।
CAG रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली सरकार ने 2016-17 से 2020-21 के बीच राजधानी के अस्पतालों में 32,000 नए बेड जोड़ने का वादा किया था। लेकिन, वास्तविकता यह रही कि सरकार केवल 1,357 बेड ही जोड़ सकी, जो कुल लक्ष्य का मात्र 4.24% है। इससे मरीजों को इलाज के लिए भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि कई अस्पतालों में बेड ऑक्यूपेंसी दर 101% से 189% तक पहुंच गई, जिसका अर्थ यह है कि एक ही बेड पर दो-दो मरीजों का इलाज किया गया या मरीजों को फर्श पर इलाज कराने के लिए मजबूर होना पड़ा।
स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली केवल बिस्तरों तक ही सीमित नहीं थी। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की भारी कमी पाई गई। राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल और जनकपुरी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में डॉक्टरों की 50-74% तक की कमी दर्ज की गई, जबकि नर्सिंग स्टाफ की 73-96% तक की कमी पाई गई। इसके अलावा, पैरामेडिकल स्टाफ की भी 38% तक की कमी देखी गई। इससे स्पष्ट होता है कि दिल्ली सरकार ने स्वास्थ्य कर्मचारियों की भर्ती को गंभीरता से नहीं लिया, जिससे मरीजों को समय पर इलाज नहीं मिल सका।
CAG रिपोर्ट में अस्पतालों के निर्माण कार्य में देरी और लागत में अप्रत्याशित बढ़ोतरी को भी उजागर किया गया है। इंदिरा गांधी अस्पताल के निर्माण में पांच साल की देरी हुई और इसकी लागत 314.9 करोड़ रुपये बढ़ गई। बुराड़ी अस्पताल को तैयार होने में छह साल की देरी हुई और इसका बजट 41.26 करोड़ रुपये अधिक हो गया। वहीं, एमए डेंटल अस्पताल (फेज-2) के निर्माण में तीन साल की देरी हुई और इसकी लागत 26.36 करोड़ रुपये तक बढ़ गई। इन परियोजनाओं में देरी से दिल्लीवासियों को स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ समय पर नहीं मिल पाया।
CAG रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि दिल्ली के अस्पतालों में सर्जरी कराने के लिए मरीजों को महीनों इंतजार करना पड़ा। लोक नायक अस्पताल में बड़ी सर्जरी के लिए मरीजों को 2-3 महीने और बर्न व प्लास्टिक सर्जरी के लिए 6-8 महीने तक का इंतजार करना पड़ा। वहीं, चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय (CNBC) में पीडियाट्रिक सर्जरी के लिए मरीजों को 12 महीने तक इंतजार करना पड़ा।
इसके अलावा, कई अस्पतालों में एक्स-रे, सीटी स्कैन और अल्ट्रासाउंड जैसी बुनियादी चिकित्सा जांच के लिए इस्तेमाल होने वाले उपकरण खराब पड़े रहे। CNBC, RGSSH और JSSH जैसे अस्पतालों में जरूरी मशीनें लंबे समय तक खराब रहने के कारण मरीजों को बाहर महंगे दरों पर जांच कराने के लिए मजबूर होना पड़ा।
CAG रिपोर्ट ने दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत को उजागर कर दिया है। रिपोर्ट में सामने आए तथ्यों से साफ है कि सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में किए गए अपने वादों को पूरा करने में विफल रही है। कोविड काल में केंद्र से मिले फंड का सही इस्तेमाल न करना, अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी, स्वास्थ्य कर्मचारियों की नियुक्ति में लापरवाही और निर्माण कार्यों में देरी, इन सभी ने सरकार की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।