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रिपोर्ट में खुलासा: अवैध प्रवासन ने दिल्ली की आर्थिक संरचना को किया प्रभावित

 17 Nov 2025

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) की एक रिपोर्ट में अवैध प्रवासियों के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंताजनक निष्कर्ष सामने आए हैं। डीडी न्यूज की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस अध्ययन में अवैध प्रवासन से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट विशेष रूप से बांग्लादेश और म्यांमार से आए अवैध प्रवासियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराती है और एक व्यापक प्रवासन नीति बनाने की सिफारिश करती है।


दिल्ली पर प्रवासन का असर: जनसांख्यिकी और सुरक्षा पर खतरा


रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अवैध प्रवासियों की बढ़ती संख्या ने दिल्ली की जनसांख्यिकी को प्रभावित किया है, संसाधनों पर दबाव डाला है और आपराधिक नेटवर्क को मजबूत किया है। इसके अलावा, रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि अवैध प्रवासन की वजह से राजधानी में "मुस्लिम आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि" देखी गई है। अध्ययन के अनुसार, इस प्रवासन ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है, सामाजिक और राजनीतिक तनाव को बढ़ाया है और सुरक्षा संबंधी चिंताओं को जन्म दिया है।

रिपोर्ट अभी पूरी नहीं, शोध जारी


114 पन्नों की इस रिपोर्ट को 'दिल्ली में अवैध प्रवासी: सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणामों का विश्लेषण' शीर्षक दिया गया है। हालांकि, पूरी रिपोर्ट अभी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है, और अलग-अलग मीडिया संगठनों ने इसके केवल कुछ हिस्से प्रकाशित किए हैं। द प्रिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यह अध्ययन जेएनयू और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) के छात्रों द्वारा किया गया है। शोध में गृह मंत्रालय के आंकड़ों को आधार बनाया गया है और पायलट स्टडी के लिए 21 क्षेत्रों का विश्लेषण किया गया। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, जेएनयू प्रशासन ने स्पष्ट किया है कि यह रिपोर्ट एक नियमित शोध का हिस्सा है, जिसकी शुरुआत अक्टूबर 2024 में हुई थी और इसे पूरा होने में अभी नौ महीने और लगेंगे।

जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन ने रिपोर्ट की टाइमिंग पर उठाए सवाल


जेएनयू की टीचर्स एसोसिएशन ने रिपोर्ट की टाइमिंग पर सवाल खड़े किए हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, एसोसिएशन की अध्यक्ष मौसमी बसु ने महाराष्ट्र चुनाव का हवाला देते हुए कहा कि ठीक इसी तरह का एक अध्ययन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने चुनाव से पहले जारी किया था। उन्होंने चिंता जताई कि इस तरह की रिपोर्ट्स अकादमिक शोध के बजाय राजनीतिक नैरेटिव गढ़ने का हिस्सा बन सकती हैं और सरकारी बयानबाजी को दोहराने से किसी ठोस नीतिगत सुधार में मदद नहीं मिलेगी।

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