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JNU: इंसाफ़ के लिए मुट्ठी तानने वाले कर्मचारियों का ‘हाथ काटता’ प्रशासन!
12 Oct 2023

मंजू (बदला हुआ नाम) पिछले 22 साल से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सफाई कर्मचारी हैं। पहले वो महीने के तीसों दिन (रविवारों को भी) काम करती थीं, तब उन्हें अपने काम के बदले 18000 रु मिलते थे। अब उन्हें हफ़्ते में एक दिन छुट्टी मिलती है लेकिन इसके साथ ही उनकी तनख़्वाह में भी कटौती हो गई है। अब वह महीने में 26 दिन काम करती हैं, इसके बदले उन्हें 15000 रु ही मिलते हैं। इतने कम पैसों में मंजू अपना और परिवार के बाक़ी सदस्यों का गुज़ारा करने को मजबूर हैं। इतना ही नहीं, मंजू इतने वर्षों की नौकरी के बावजूद भी अब तक अपनी नौकरी के परमानेंट होने का इंतज़ार कर रही हैं।

यह सिर्फ़ मंजू की परेशानी नहीं है। उनकी तरह ही जेएनयू में ऐसे कई कर्मचारी हैं जो सालों की नौकरी के बावजूद परमानेंट नहीं हो सकें हैं। उन्हें अपनी तनख़्वाह तक टाइम पर नहीं मिलती। इन कर्मचारियों का आरोप है कि उन्हें न तो सैलरी स्लिप मिलती है, न ही उनके पीएफ का हिसाब। प्रशासन अच्छा व्यवहार भी नहीं करता। इन्हीं सब मुद्दों को लेकर जेएनयू के कर्मचारी पिछले काफ़ी समय से आवाज़ उठा रहे हैं। बीते 18 सितंबर को इन कर्मचारियों ने एक सम्मान रैली भी निकाली थी। इस समस्या से जूझने वाले या तो सफ़ाई कर्मचारी हैं या फ़िर मेस में काम करने वाले।

कर्मचारियों का आरोप है कि ठेकेदार ने उनके प्राविडन्ट फंड में भी घोटाला किया है। इस संबंध में ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स (AICCTU) के दिल्ली स्टेट काउन्सिल के सचिव सूर्य प्रकाश ने केन्द्रीय भविष्य निधि आयुक्त (Central Provident Fund Commissioner) को बीती 19 जुलाई को मेल भी भेजा था। सूर्य प्रकाश ने बताया कि इस मेल का अब तक कोई जवाब नहीं आया है। मोलिटिक्स के पास उस मेल की कॉपी है।

मंजू के अलावा हमारी बात एक अन्य पीड़ित सुरेश (बदला हुआ नाम) की पत्नी सुनीता (बदला हुआ नाम) से भी हुई। सुरेश को एक अन्य सफ़ाईकर्मी के साथ हुई बहस के चलते जनवरी 2021 में नौकरी से निकाल दिया गया था। तब से सुनीता लगातार जेएनयू प्रशासन से गुहार लगा रही हैं कि उनके पति को दोबारा नौकरी पर रख लिया जाए। अधिकारियों ने सुनीता और सुरेश से झगड़े के दूसरे पक्ष के साथ समझौता पत्र लिखकर देने को कहा था। सुरेश ने 22 जनवरी 2021 को जेएनयू रजिस्ट्रार और 15 मई 2023 को असिस्टन्ट रजिस्ट्रार एन.के.दहिया को सुलह-पत्र लिखकर दिया भी। मोलिटिक्स के पास वो दोनों पत्र हैं। दो साल से अधिक समय बीत गया है, अभी तक सुरेश को उनकी नौकरी वापस नहीं मिली है। सुनीता के दो बेटे और एक बेटी हैं। मोलिटिक्स से बात करते हुए सुनीता ने बताया कि नौकरी न होने से घर चलाना बहुत मुश्किल होता है। बच्चों की पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पा रही है। जब से नौकरी गई है, पति दिहाड़ी मज़दूरी करने को मजबूर हैं। सुरेश को जिस दिन मज़दूरी मिल जाती है, उस दिन तो पैसा आ जाता है, बाकी दिन नहीं। वहीं सुनीता एक घर में काम करके 1800 रु कमाती हैं। कई बार प्रशासन के आगे गुहार लगा चुकी हैं, लेकिन प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
सफ़ाई कर्मचारियों को कचरा उठाने के लिए न तो दस्ताने उपलब्ध होते हैं, न ही फेस मास्क। कुछ कर्मचारियों ने बताया कि अगर दस्ताने मिलते भी हैं तो ख़राब क्वालिटी के। उन्हें पहनने से हाथों में इतना पसीना आता है कि कूड़ा उठाना मुश्किल हो जाता है। ज़ाहिर है कि दस्ताने उपलब्ध कराने के नाम पर प्रशासन केवल खानापूर्ति करता है।
सफ़ाई कर्मचारियों के साथ-साथ हॉस्टल की मेस में काम करने वाले कर्मचारी भी परेशान हैं। ऐसे ही एक कर्मचारी ने बताया कि उन्हें पिछले दो महीने से सैलरी नहीं मिली है। उन्हे यहाँ नौकरी करते हुए आठ साल हो गए पर अभी तक परमानेंट नहीं किया गया।

इन कर्मचारियों का यह भी आरोप है कि जब भी वे अपनी शिकायत लेकर अधिकारियों के पास जाते हैं तो उनका रवैया ठीक नहीं होता। अधिकारी ऐसे पेश आते हैं कि मानों वे कोई कूड़ा-कचरा हों। उनके साथ भेदभाव किया जाता है। पत्रकार नीलम गौर ने न्यूज़क्लिक में 21 सितंबर 2023 को छपी अपनी रिपोर्ट में एक सफ़ाई कर्मचारी के हवाले से बताया कि जब वे (कर्मचारी) यूनियन के सदस्यों के साथ प्रशासन के अधिकारियों से मिलने गईं तो उन्हें कुर्सी पर बैठने से मना कर दिया गया, जबकि एक दूसरे यूनियन सदस्य को बैठने के लिए कुर्सी दी गई।
आल इंडिया जनरल कामगार एसोसिएशन (AIGKU-JNU Wing), जिसके बैनर तले कर्मचारियों ने 18 सितंबर को सम्मान रैली निकाली थी), की जेएनयू इकाई की महासचिव और जेएनयू छात्र संघ की पूर्व अध्यक्ष सुचेता डे ने मोलिटिक्स से बातचीत में बताया कि दरअसल, जब से जेएनयू के अंदर ठेके पर कर्मचारियों की भर्ती होने लगी है, तभी से इस समस्या ने जन्म लिया है। ठेका आधारित भर्तियाँ होने के कारण इन कर्मचारियों को लगातार अपनी नौकरी से हाथ धोने का भय बना रहता है। इस कारण कर्मचारी मुखर होकर अपनी आवाज़ सबके सामने नहीं रख पाते। पिछले कुछ वर्षों में जेएनयू प्रशासन ने इन कर्मचारियों के सामने ऐसे कुछ उदाहरण भी पेश किये हैं। मसलन, उर्मिला चौहान को 2018 में नौकरी से निकाल दिया गया था। उर्मिला (AIGKU-JNU Wing) की अध्यक्ष हैं और पहले जेएनयू में सफ़ाई कर्मचारी थीं। उनका आरोप है जब वह अपने कुछ और साथियों के साथ बोनस की मांग लेकर यूनिवर्सिटी के अधिकारियों से मिलने गईं, तो कर्मचारियों को भड़काने के आरोप में उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया, साथ ही उन्हें विश्वविद्यालय परिसर के अंदर आने पर भी रोक लगा दी गई। सुचेता डे ने भी जब इन कर्मचारियों के लिए मांग उठाई तो उनका परिसर प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया।
हमने इस संबंध में जेएनयू की कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित से ई मेल के जरिए संपर्क करने की कोशिश की लेकिन खबर के प्रकाशित होने तक इस मामले में उनकी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं आई है। कर्मचारी पिछले कई महीनों से उस चीज़ को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो उनका हक़ है। यह उस शिक्षण संस्थान का हाल है, जो शिक्षा की गुणवत्ता के लिए न सिर्फ़ देश, बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्ध है। यह सफ़ाई कर्मचारी ही हैं, जिनकी बदौलत परिसर स्वच्छ रह पाता है, वरना एक भी दिन भी यहाँ की सड़कों पर झाड़ू न लगे तो गंदगी का ढेर लग जाएगा। जिन हाथों ने जेएनयू को साफ-सुथरा और सुरम्य बनाया है, उन्हें मज़बूत नहीं मजबूर बनाने में किसकी दिलचस्पी है और क्यों?
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