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हर राजनीतिक दल बांट रहा मुफ्त की रेवड़ियां !

 29 May 2023

सतत लाभ अर्जित करने के अर्थशास्त्र में दो स्थापित सिद्धांत है। पहला, खर्चे में कटौती का नाम ही आमदनी है और दूसरा, बांटते रहने से लाभ बढ़ता जाता है। अर्थशास्त्र के इस दूसरे नियम पर चलते हुए यानी मुफ्त की रेवड़ी बांटकर सस्ती लोकप्रियता और अधिकाधिक वोट कमाने का धंधा राजनीति शास्त्र ने अख्तियार कर लिया है। हाल के महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) कई मौकों पर रेखांकित करते रहे हैं कि मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की राजनीति इस देश को घुन की तरह खोखला कर रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुफ्त लुटाने की योजना न तो टिकाऊ है और न ही व्यवहारिक, फिर भी इसकी जमीनी सच्चाई हाथी के दांत (खाने के और, दिखाने के और) की तरह है। 


वोट की खातिर "मुफ्त रेवड़ी संस्कृति" की गंगा में डुबकी लगाने के लिए सब तैयार बैठे हैं। कोई किसी से उन्नीस नहीं है, सब बीस बनकर बाजी मार लेना चाहते हैं। सत्ताधारी राजनीतिक दल कुर्सी पर आगे भी काबिज रहने के लिए अपने मतदाताओं को एक से बढ़कर एक चीजें मुफ्त में देने का ढोल पीटते हैं, तो विपक्ष में रहने वाले दल सत्ता में आने पर उससे भी बड़ी चीजें मुफ्त मुहैया कराने का वादा करते रहे हैं। यह चलन पिछले एक-दो दशकों में खूब बढ़ा है। हाल के कर्नाटक चुनाव (Karnataka Election) के दौरान सत्ताधारी दल भाजपा (BJP) ने बीपीएल (BPL) परिवारों को हर महीने 5 किलो चावल, मोटा अनाज, तीन रसोई गैस सिलेंडर, आधा लीटर नंदिनी दूध मुफ्त में देने का वादा किया तो जवाब में विपक्षी पार्टी कांग्रेस (Congress) परिवारों को 10 किलोग्राम चावल, दूध पर प्रति लीटर 2 रुपए की और सब्सिडी, सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं की मुफ्त यात्रा के साथ साथ 200 यूनिट बिजली फ्री में देने का वादा किया। जेडीएस ने तो वादों के मामले में दोनों राष्ट्रीय दलों को पीछे छोड़ते हुए साल में 5 गैस सिलेंडर मुफ्त तथा 10 सिलेंडर आधी कीमत पर देने का वादा किया। किसान को हर महीने दो हजार रुपए की पेंशन तथा किसान लड़के से शादी करने वाली लड़कियों को 2 लाख रुपए बतौर इनाम देने का वादा किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) अपने भाषणों में मुफ्त की रेवड़ी संस्कृति को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं, पर उनकी पार्टी भी रेवड़ी कल्चर से वोट बटोरने के मामले में कहीं से पीछे नहीं है। मुफ्त उपहार भारत में राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है।

दक्षिण का तमिलनाडु राज्य मुफ्त की रेवड़ी संस्कृति का अग्रणी खिलाड़ी होने के लिए पहले से ही बदनाम रहा है । अब यह प्रथा उत्तर के राज्यों में भी फैल चुकी है। दिल्ली की आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) की  सरकार ने महिलाओं के लिए मुफ्त बस पास, मुफ्त बिजली-पानी आदि की घोषणा की है। देखा देखी पंजाब, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना , मध्य प्रदेश, राजस्थान में भी मुफ्त की संस्कृति सिर चढ़कर बोल रही है। अब तो कई एक राजनीतिक दल जिनकी सरकारें मुफ्त उपहार के बल पर किसी राज्य में सत्ता में है, वे दूसरे राज्यों के चुनाव में मुफ्त उपहारों की नजीर देकर वोट मांगते हैं। आम आदमी पार्टी देश के विभिन्न राज्यों में मुफ्त की रेवड़ी संस्कृति को आगे कर अपना जनाधार बढ़ाने में जुटी रहती है। यह जानते हुए भी कि "भगवान के आशीर्वाद के अलावा दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता।" लोग मुफ्त की आस लगाए हुए हैं। यह एक घटिया प्रथा है क्योंकि करदाताओं का पैसा ही, सरकारें मुफ्त के नाम पर लोगों में बांटकर सस्ती लोकप्रियता हासिल कर लेती हैं। 


आम जीवन में अनेक लोग मुफ्त की संस्कृति के खिलाफ मुखर भी होते हैं, किंतु राजनीतिक पार्टियां उनकी अनदेखी कर, सरल मार्ग की तरह इसे पकड़े हुए हैं। मुफ्त की घोषणाओं को पूरा करने के चलते राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हाल ही में रिजर्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में ऐसे राज्यों को चिन्हित किया है जिनकी उधारी उनकी धारण क्षमता से बहुत अधिक हो गई है। रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब , आंध्र प्रदेश पश्चिम बंगाल , हरियाणा , केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार में औसतन सरकारी उधारी राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 5% से अधिक हो गयी है। भारत राज्यों का एक संघ है, इसलिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों के ऋण मिलाकर ही सरकार के ऋण माने जाते हैं। राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (FRBM) समिति ने वर्ष 2017 में यह सुझाव दिया था कि सरकार के GDP के अनुपात में ऋण की सीमा अधिकतम 60% होनी चाहिए, जिसमें केंद्र सरकार की ऋण सीमा 40% और राज्य सरकार की 20% होनी चाहिए। कोरोना महामारी के कारण केंद्र सरकार की सीमा वर्ष 2019-20 में 62% तक पहुंच गई थी लेकिन वर्ष 2021- 22 में घटकर 57.33% तथा 2022-23 में 55.88% तक आ गई है। लेकिन राज्य सरकारों की देनदारियां GDP के अनुपात में समान वर्षों में क्रमशः 26.66% , 31.8% , 28.71% रही है । यदि दोनो को जोड़ दें तो कुल देनदरिया 60%की सीमा से बहुत अधिक हो जाती है। केंद्र और राज्य दोनों को मिलाकर कुल देनदारियां वर्ष 2019- 20 में 77% , 2020-21 में 92%, 2021-22 में 86% और 2022-23 में 84% की रही है। 


भारत के अंकेक्षक एवं महालेखाकार (कैग) (Auditor and Accountant General) ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा है कि अधिकांश राज्यों में ऋण जीडीपी अनुपात लक्षित 20 प्रतिशत से दो गुना से भी ज्यादा है। पंजाब में लगभग 49 %, राजस्थान में 43%, पश्चिम बंगाल में 38%, बिहार में 37%, मध्य प्रदेश में 32%, उत्तर प्रदेश में 31% तक पहुंच गया है। कैग के आकलन के मुताबिक उन राज्यो के ऊपर कर्ज की रकम लगातार बढ़ती जा रही है जहां मुफ्त की योजनाओं पर ज्यादा खर्च किया जा रहा है। इसमें सबसे ऊपर पंजाब, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु है। दिल्ली में भी मुफ्त योजनाओं की बाढ़ है, लेकिन यहां प्रति व्यक्ति राजस्व शेष भारत से दो गुना से भी कुछ अधिक है, इसलिए स्थिति अभी उतनी भयावह नहीं है। लेकिन दिल्ली में भी बुनियादी ढांचे के विकास के काम लगभग रुक गए हैं । 


जाहिर है कि कोई भी राज्य अपने राजस्व का बड़ा हिस्सा मुफ्त की योजनाओं पर लुटा देगा तो आवश्यक सेवाओं और बुनियादी विकास पर पूंजीगत खर्च कम होता जाएगा । कर्ज का जाल बढ़ेगा और अंततः यह सभी भार देश के करदाताओं और आम लोगो के सिर पर ही जाएगा। हालांकि देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गारंटी योजनाा (Employment Guarantee Scheme), शिक्षा के लिए सहायता, स्वास्थ्य के लिए परिवयय में वृद्धि जैसे उपहारों से उत्पादन क्षमता बढ़ाने और मजबूत कार्य संस्कृति विकसित करने में मदद मिलती है। अत्यंत गरीबी से पीड़ित आबादी के लिए यह मदद डूबते को तिनके का सहारा जैसी है, लेकिन सार्वजनिक धन से मुफ्त का वादा शुद्ध चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित तो करता ही है बड़ी संख्या में लोगों को ठलुआ भी बना देता है। हमें समझना होगा कि महिलाओं को बस में मुफ्त पास की तुलना में यात्रा के दौरान उनकी सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। अगर लोगों को भरोसा हो कि सरकारें उनकी जरूरतों का ख्याल रख रही है तो उन्हें मुफ्त उपहारों की जरूरत शायद नहीं होगी।संसदीय लोकतंत्र सत्ता के साथ-साथ विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों की ताकत पर निर्भर करता है। दलों को अपनी योजनाओं और घोषणा पत्र का मसौदा तैयार करते समय अधिक जिम्मेवार बनते हुए रणनीतियों का विश्लेषण करना चाहिए।अगर सत्ता में बैठे दल रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई और दवाई को पूरा करते हुए रोजगार और व्यवसाय के अवसर निर्मित करते हैं तो उन्हें चुनाव जिताने की गारंटी वाले फार्मूला की तरह मुफ्त की रेवाड़ियां बांटने की जरूरत नहीं होगी। ऐसे में जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल आम नागरिकों को भरोसे में लेकर मुफ्त की योजनाओं के कारण लगातार बढ़ रहे कर्ज जाल से बाहर निकलने का रास्ता तैयार करें ताकि निवेश को बढ़ाकर देश के विकास को गति दी जा सके।



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