
मुस्लिम महिलाओं को तलाक का अधिकार, पति की सहमति जरूरी नहीं: हाई कोर्ट
तेलंगाना हाई कोर्ट ने मंगलवार को मुस्लिम समुदाय में खुला तलाक को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मुस्लिम पत्नी द्वारा मांगे गए खुला तलाक को पति द्वारा अस्वीकार नहीं किया जा सकता। न्यायालय की भूमिका केवल इस विवाह-विच्छेद को मान्यता देने तक सीमित है, और एक बार निर्णय आने के बाद दोनों पक्षों को इसे मानना बाध्यकारी होता है।
इस्लामी कानून में खुला वह प्रक्रिया है जिसमें पत्नी विवाह को समाप्त करने की पहल करती है। आम तौर पर इसमें पति को मेहर या कुछ आर्थिक मुआवजा लौटाया जाता है। अक्सर यह प्रक्रिया मुफ्ती की सलाह और दोनों पक्षों की आपसी सहमति से सुलझाई जाती है, लेकिन अब हाई कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पति की सहमति इस प्रक्रिया के लिए जरूरी नहीं है।
यह मामला अक्टूबर 2020 का है, जब एक मुस्लिम महिला ने अपने पति से खुला तलाक लिया था। यह तलाक एक मुफ्ती, एक इस्लामी अध्ययन के प्रोफेसर, एक अरबी भाषा विशेषज्ञ और एक मस्जिद के इमाम की उपस्थिति में दिया गया था। दंपति की शादी 2012 में हुई थी, लेकिन 2017 में कथित घरेलू हिंसा के बाद पत्नी ने पति से अलग होने का निर्णय लिया।
पति ने सुलह वार्ताओं से इनकार कर दिया और 2020 में पारिवारिक अदालत का दरवाजा खटखटाया, यह कहते हुए कि खुला नामा अमान्य है। लेकिन पारिवारिक अदालत ने फरवरी 2024 में उसकी याचिका खारिज कर दी, जिसे अब हाई कोर्ट ने भी बरकरार रखा है।
मुख्य न्यायाधीश मौसमी भट्टाचार्य और न्यायमूर्ति बी.आर. मधुसूदन राव की खंडपीठ ने कहा, "खुला मुस्लिम महिला द्वारा प्रारंभ किया गया एक गैर-विवादास्पद तलाक है। इस प्रक्रिया में पति के पास केवल मेहर की वापसी के लिए बातचीत का विकल्प होता है, न कि तलाक को अस्वीकार करने का।"
कोर्ट ने यह भी कहा कि मुफ्ती की भूमिका परामर्श तक सीमित है, और उसकी राय कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं मानी जाती। पत्नी की ओर से पेश हुए अधिवक्ता मुबाशिर हुसैन अंसारी ने कहा कि इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि खुला तलाक के लिए पति की सहमति आवश्यक नहीं है, जिससे पारिवारिक अदालतों में लंबी सुनवाई की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। पहले इस तरह के मामलों में निर्णय आने में 6 से 8 साल लग जाते थे, जबकि अब केवल अदालत की स्वीकृति ही पर्याप्त होगी।
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