लोकतंत्र की आत्मा को कुचलता अघोषित आपातकाल: क्या भारत सचमुच आज़ाद है?

लोकतंत्र सिर्फ़ एक सरकार चलाने का तरीका नहीं है, बल्कि एक ऐसा विचार है, जिसमें जनता ही असली मालिक होती है। ये वो सिस्टम है, जहाँ सत्ता जनता के वोट से चलती है, विपक्ष को अपनी बात कहने का पूरा हक़ होता है, कोर्ट-कचहरी स्वतंत्र रहती है, मीडिया बिना डर के सच दिखाता है, और हर इंसान को अपनी बात रखने की आज़ादी होती है। लेकिन जब ये सारे मज़बूत खंभे धीरे-धीरे कमज़ोर होने लगें, तो लोकतंत्र सिर्फ़ नाम का रह जाता है। बाहर से सब ठीक दिखता है, लेकिन अंदर से एक अनकहा आपातकाल शुरू हो जाता है, जो संविधान में लिखा नहीं होता, पर समाज को जकड़ लेता है।

25 जून 1975: लोकतंत्र का सबसे काला दिन

25 जून 1975 का दिन भारत के इतिहास में एक काले धब्बे की तरह है। उस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था। लोगों के बुनियादी हक़ छीन लिए गए, न्यूज़ चैनलों और अख़बारों पर पाबंदी लगा दी गई, विपक्ष के नेताओं को जेल में डाल दिया गया, और सत्ता का डरावना चेहरा सामने आया। ये वो वक़्त था, जब लोकतंत्र को कुचलने की कोशिश हुई थी।   25 जून के इस दिन को बीजेपी, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह, इसे ‘लोकतंत्र हत्या दिवस’ के तौर पर याद दिलाते हैं। जिससे लोग कांग्रेस की गलतियों को न भूलें और बीजेपी को लोकतंत्र का सच्चा पहरेदार समझें। लेकिन सवाल ये है कि क्या आज की सरकार, जो खुद को लोकतंत्र का रक्षक बताती है, सचमुच उस रास्ते पर चल रही है? क्या आज के भारत में लोकतंत्र ज़िंदा है? क्या हमें आज के भारत में लोकतंत्र की ताज़गी महसूस होती है, या ये बस एक दिखावा बनकर रह गया है?

आज का भारत: क्या हमारा लोकतंत्र स्वस्थ है?

पिछले दस सालों में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने लोकतंत्र के चाहने वालों को परेशान किया है। ये घटनाएं बताती हैं कि सत्ता का इस्तेमाल गलत तरीके से हो रहा है, और ये सवाल उठाती हैं कि क्या हमारा लोकतंत्र सचमुच मज़बूत है। चलिए, कुछ उदाहरणों से समझते हैं:  

1. मणिपुर:आग में जलता राज्य, सरकार की ख़ामोशी- मणिपुर, जो भारत का एक छोटा लेकिन संवेदनशील राज्य है, मई 2023 से हिंसा की आग में जल रहा है। मेईती और कुकी समुदायों के बीच झगड़े में 250 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं, और 60,000 से ज़्यादा लोग अपने घर छोड़कर भागने को मजबूर हुए हैं। जुलाई 2023 में एक वीडियो सामने आया, जिसमें दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाया गया। ये वीडियो देखकर पूरा देश सन्न रह गया। लेकिन केंद्र सरकार ने क्या किया? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महीनों तक इस पर एक शब्द नहीं बोला और मणिपुर नहीं गए। संसद में विपक्ष ने सवाल उठाए, तो गृहमंत्री अमित शाह ने जवाब दिया, लेकिन वो बस खानापूर्ति थी। मणिपुर में इंटरनेट बंद कर दिया गया, कर्फ्यू लगा, और लोगों की आवाज़ को दबा दिया गया। क्या ये लोकतंत्र का वो रूप है, जहाँ सरकार जनता के दुख-दर्द में साथ देती है, या ये सत्ता की बेरुखी दिखाता है?

2. ऑपरेशन लोटस: जनता के वोट की चोरी- लोकतंत्र का मतलब है जनता का वोट, लेकिन पिछले कुछ सालों में ‘ऑपरेशन लोटस’ के नाम पर जनता के वोट को ठगने का खेल चला है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार और महाराष्ट्र में विधायकों को पैसे और पद का लालच देकर सरकारें गिराई गईं। जनता ने एक सरकार चुनी, लेकिन सत्ता के खेल ने उस वोट को बेकार कर दिया। क्या ये लोकतंत्र है? सुप्रीम कोर्ट ने भी इन मामलों में कई बार टोका, लेकिन बार-बार ऐसा होना लोकतंत्र की जड़ों को कमज़ोर करता है।

3. मीडिया का ‘गोदीकरण’ और सच बोलने वालों का दमन- लोकतंत्र का चौथा खंभा, यानी मीडिया, आज ‘गोदी मीडिया’ के नाम से बदनाम हो चुका है। ज़्यादातर न्यूज़ चैनल और अख़बार सरकार की तारीफ़ में लगे रहते हैं। जो सच दिखाने की कोशिश करता है, उसे या तो धमकियां मिलती हैं, या जेल में डाल दिया जाता है। गौरी लंकेश (2017 में हत्या), शुजात बुखारी (2018 में हत्या), सिद्दीकी कप्पन (2020 से जेल में), राणा अयूब (जांच का दबाव), और रुपेश कुमार सिंह जैसे पत्रकारों के साथ जो हुआ, वो आज़ाद भारत के लोकतंत्र पर एक धब्बा है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2024 में भारत 161वें नंबर पर है। ये बताता है कि सच बोलने की आज़ादी खतरे में है। क्या ये लोकतंत्र की मज़बूत तस्वीर है?

4. उमर खालिद और UAPA: विचारों को जेल में डालना- 1975 के आपातकाल में सत्ता ने उन लोगों को कुचला, जो उससे सहमत नहीं थे। आज भी ऐसा ही हो रहा है। उमर खालिद, एक युवा स्कॉलर और एक्टिविस्ट, 2020 से दिल्ली दंगों के मामले में UAPA के सख्त धाराओं में जेल में बंद हैं। बिना पक्के सबूत, बिना दोष सिद्ध हुए। UAPA जैसे कड़े कानूनों का इस्तेमाल असहमति को दबाने के लिए हो रहा है, जिसमें जमानत मिलना लगभग नामुमकिन है। मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक, 2014 से 2023 तक UAPA के तहत 8,000 से ज्यादा लोग गिरफ्तार हुए, जिनमें से ज्यादातर के केस अभी तक कोर्ट में पूरे नहीं हुए। क्या ये सत्ता का डर नहीं, जो लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है?

5. जांच एजेंसियां: सत्ता का हथियार- ED, CBI, और आयकर विभाग जैसी एजेंसियां, जो कानून की रक्षा के लिए बनी थीं, आज सत्ता के लिए काम कर रही हैं। चुनाव से पहले विपक्षी नेताओं के घर छापे पड़ते हैं, लेकिन जैसे ही वो बीजेपी में शामिल होते हैं, उनके सारे केस गायब हो जाते हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा और महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम अजित पवार इसके बड़े उदाहरण हैं। ये ‘वॉशिंग मशीन’ की राजनीति लोकतंत्र की साफ-सफाई और जवाबदेही पर सवाल उठाती है।

6. चंडीगढ़ मेयर चुनाव: लोकतंत्र का मज़ाक- फरवरी 2024 में चंडीगढ़ मेयर चुनाव में वोटों की गिनती में धांधली हुई। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, और कोर्ट ने इसे “लोकतंत्र की हत्या” कहा। ये घटना दिखाती है कि कैसे छोटे स्तर पर भी जनता के वोट को ठगा जा सकता है।

7. किसान आंदोलन: आवाज़ दबाने की कोशिश- 2020-21 का किसान आंदोलन लोकतंत्र की एक और कसौटी था। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने महीनों तक सड़कों पर प्रदर्शन किया। 700 से ज्यादा किसान मारे गए। सरकार ने पहले आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की, फिर मजबूरी में कानून वापस लिए। लेकिन ये जवाबदेही नहीं, सत्ता का ड्रामा था।

1975 बनाम 2025: आपातकाल का नया चेहरा

2020-21 का किसान आंदोलन लोकतंत्र की एक और कसौटी था। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने महीनों तक सड़कों पर प्रदर्शन किया। 700 से ज्यादा किसान मारे गए। सरकार ने पहले आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की, फिर मजबूरी में कानून वापस लिए। लेकिन ये जवाबदेही नहीं, सत्ता का ड्रामा था।  1975 में इंदिरा गांधी ने खुलेआम आपातकाल लगाया था। प्रेस पर सेंसरशिप, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, और संसद का समय बढ़ाना, सब कुछ सामने था। आज का आपातकाल बिना घोषणा के है, लेकिन मकसद वही है। प्रेस को सरकारी विज्ञापनों और दबाव से काबू किया जाता है। विपक्ष को UAPA और जांच एजेंसियों से डराया जाता है। संसद में बहस का वक़्त कम कर दिया जाता है। असहमति को देशद्रोह बता दिया जाता है।

लोकतंत्र का मतलब: सवाल और जवाबदेही

लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ वोट डालना नहीं है। लोकतंत्र वो है, जहाँ विपक्ष को बोलने का हक़ हो, मीडिया बिना डर के सवाल उठाए, जनता की समस्याएं सबसे ऊपर हों, और सरकार जनता की सेवा करे, न कि उस पर हुकूमत। जब सत्ता जवाब देने से बचती है, तब जनता का सवाल ही सबसे बड़ा हथियार बनता है। 25 जून को जब बीजेपी आपातकाल की 50वीं सालगिरह मना रही है, तो उसे सोचना चाहिए कि वो खुद किस रास्ते पर जा रही है। 1975 की यादों के साथ-साथ 2025 की हक़ीक़त को भी देखना होगा। अगर हम आज के इस अनकहे आपातकाल को नहीं समझेंगे, तो आने वाला इतिहास हमें भी उसी तरह याद करेगा, जैसे आज इंदिरा गांधी को याद किया जाता है। लोकतंत्र की ताकत है सवाल पूछना, और उसका सबसे बड़ा दुश्मन है सत्ता का घमंड। अब वक़्त है कि हम पूछें: क्या हमारा लोकतंत्र सचमुच ज़िंदा है, या ये बस एक दिखावा बनकर रह गया है?

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