जनरल अहमद शरीफ चौधरी से ओसामा तक: क्या पाकिस्तान की सेना में आतंकवाद विरासत में मिलता है?
भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में बढ़े तनाव और संघर्ष के दौरान पाकिस्तान की ओर से जो चेहरा सबसे अधिक सामने आया, वह था लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी का। तीन सितारा जनरल अहमद शरीफ पाकिस्तानी सेना के जनसंपर्क विभाग, इंटर-सर्विस पब्लिक रिलेशंस (DG-ISPR) के प्रमुख हैं। इस पद पर रहते हुए वह न केवल सेना का दृष्टिकोण सामने रखते हैं, बल्कि वैश्विक मंच पर पाकिस्तान की सैन्य रणनीति और कथानक को भी नियंत्रित करते हैं। युद्ध के दौरान मीडिया में उनकी मौजूदगी और बयानों ने उन्हें एक प्रमुख सैन्य प्रवक्ता के रूप में स्थापित कर दिया, लेकिन उनके पारिवारिक इतिहास ने एक बार फिर इस बहस को हवा दी है कि क्या पाकिस्तान की सेना और आतंकवाद के बीच रिश्ता केवल रणनीतिक है या पारिवारिक भी?
इस बहस को बल तब मिला जब कुछ ऐसी तस्वीरें और घटनाएं सामने आईं, जिनमें पाकिस्तानी सेना के अधिकारी मारे गए आतंकियों के जनाजों में शामिल होते और उनके लिए आंसू बहाते नजर आए। यह दृश्य उस दावे को और मजबूत करता है कि पाकिस्तान की सेना और आतंकवादी संगठनों के बीच न सिर्फ रणनीतिक संबंध हैं, बल्कि भावनात्मक और वैचारिक रूप से भी एक जुड़ाव मौजूद है। जब भारत ने आतंकियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की, तो पाकिस्तानी सेना की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित रूप से आक्रामक रही। यह व्यवहार केवल रक्षा के नाम पर नहीं था, बल्कि उनके "अपने लोगों" पर हुए हमले का बदला लेने जैसा दिखा।
इस पूरे प्रकरण में जो बात सबसे ज्यादा चौंकाने वाली और चिंताजनक है, वह है जनरल अहमद शरीफ चौधरी के पारिवारिक पृष्ठभूमि से जुड़ी जानकारी। अहमद शरीफ चौधरी के पिता, सुल्तान बशीरुद्दीन महमूद, एक प्रसिद्ध परमाणु वैज्ञानिक थे। लेकिन उनकी पहचान केवल विज्ञान तक सीमित नहीं रही। समय के साथ उनका झुकाव कट्टरपंथ और आतंकवाद की ओर हुआ, और उन्होंने वर्ष 1999 में 'उम्मा तामीर-ए-नौ' नामक एक संगठन की स्थापना की। यह संगठन अल-कायदा जैसे वैश्विक आतंकी नेटवर्क के साथ सहयोग के संदेह में आया और अंततः अमेरिका ने 2001 में इसे प्रतिबंधित कर दिया। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने भी बशीरुद्दीन महमूद को आतंकवादियों की वैश्विक सूची में डाल दिया।
उनके खिलाफ सबसे गंभीर आरोप यह था कि वह अल-कायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन के करीबी सहयोगी थे। अमेरिका और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को यह आशंका सताने लगी थी कि अगर एक परमाणु वैज्ञानिक आतंकवादी संगठनों के संपर्क में है, तो कहीं ऐसा न हो कि वे आतंकवादी संगठन भविष्य में परमाणु हथियार हासिल कर लें। महमूद पर आरोप है कि उन्होंने ओसामा बिन लादेन और अन्य आतंकियों को परमाणु बम से संबंधित तकनीकी जानकारियाँ दीं। रिपोर्ट्स के अनुसार, ओसामा के एक करीबी ने बताया था कि उनके पास रेडियोएक्टिव मैटेरियल मौजूद था और वह महमूद की मदद से बम तैयार करना चाहता था। बशीरुद्दीन महमूद ने उसे तकनीकी इन्फ्रास्ट्रक्चर, प्रक्रिया और आवश्यक संयंत्रों की जानकारी भी दी।
इतना ही नहीं, 2001 में महमूद की मुलाकात तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर से भी हुई थी। उन पर लॉजिस्टिक सपोर्ट, हथियारों की व्यवस्था और रणनीति निर्माण में ओसामा बिन लादेन की मदद करने का भी आरोप है। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि जब एक वैज्ञानिक, जो कि अपने देश का परमाणु कार्यक्रम विकसित करने में मुख्य भूमिका निभा चुका है, उसी देश के दुश्मन नंबर एक के साथ मिलकर काम करे, तो वह न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा बल्कि वैश्विक शांति के लिए भी गंभीर खतरा बन जाता है।
बशीरुद्दीन महमूद की गतिविधियों पर जब अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ा, तो वे धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन से हट गए और गुमनामी में चले गए। अब यह माना जाता है कि वह इस्लामाबाद में अपने घर में एकांत जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हालांकि, उनकी गतिविधियों पर निगरानी रखने की आवश्यकता आज भी बनी हुई है, क्योंकि एक बार आतंकवाद से जुड़ाव रखने वाला व्यक्ति भविष्य में किस दिशा में जाएगा, यह कहना कठिन होता है।
इन सब तथ्यों को देखने के बाद यह स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान की सेना में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ अधिकारी केवल सैन्य रणनीति तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका पारिवारिक और वैचारिक जुड़ाव उन ताकतों से भी है, जो दुनिया भर में आतंक फैलाने के लिए जानी जाती हैं। यह सवाल अब पहले से कहीं ज्यादा गंभीर हो गया है कि जब एक ऐसे व्यक्ति को सेना का प्रवक्ता बनाया जाता है, जिसके पिता आतंकवादियों से संबंध रख चुके हैं, तो क्या वह सेना पूरी तरह निष्पक्ष और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने वाली मानी जा सकती है?
इस पूरे मामले से एक बार फिर यह उजागर हो गया है कि पाकिस्तान में आतंकवाद केवल सीमा पार की रणनीति नहीं, बल्कि उसकी सत्ता और सुरक्षा तंत्र के भीतर गहराई से समाया हुआ एक सोच और संरचना है। जब तक ऐसे रिश्तों की परतें पूरी तरह से नहीं खोली जाएंगी और उन पर सख्त कार्रवाई नहीं होगी, तब तक क्षेत्रीय और वैश्विक शांति एक जोखिम में बनी रहेगी।