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“बीजेपी ने सब बर्बाद कर दिया फिर भी अखिलेश मौक़े को नहीं भुना पा रहे” - लखनऊ से सुल्तानपुर

 26 Aug 2021

‘बीजेपी सरकार ने हमारी ज़रूरत की चीज़ों को हमसे दूर कर दिया है। गैस के दाम से लेकर तेल के दाम तक ने नाक में दम कर दिया। सब्ज़ियों की क़ीमतें भी आसमान में उड़ रहीं हैं। आमदनी है नहीं। पेट काटना पड़ रहा है लेकिन कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है। ख़ाली नारा देने से कोई सरकार अच्छी थोड़ी हो जाती है।’ उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में पयाजीपुर चौराहे पर एक होटल में काम करने वाला लड़का कहते-कहते आवेश में आता जा रहा था।

 

मैं मुस्कुरा भी रहा था और हैरान भी हो रहा था। इसकी वजह थी बातचीत की शुरुआत में पहले सवाल को लेकर दिया गया उसका जवाब। बातचीत की शुरुआत में मैंने उस लड़के से पूछा कि क्यों भाई, उत्तर प्रदेश में रहते हो, मोटे तौर पर अंदाज़ा क्या लग रहा है, बाबा दोबारा आएँगे या नहीं? लड़के ने कहा, “पूछने वाली बात थोड़ी है। बाबा से बढ़ियो कोई नहीं है। पक्का आएँगे।” बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा तो पहले पैराग्राफ़ में उद्धृत बात कही। हैरानी इसी बात ने पैदा की।

 

इसके बाद भी बातचीत चलती रही। रोज़गार के बारे में बात करते हुए वो लगभग ग़ुस्सा हो गया था। उसने कहा, ‘पहले चाहे 10 लाख देने पड़ते थे, लेकिन नौकरी तो मिल जाती थी। लेकिन अब तो परीक्षाएँ ही नहीं हो रहीं। उपर से पूरा देश बंद ही चल रहा है पिछले दो सालों से, ये अलग दिक़्क़त। आप देखिए कैसे बंबई और दिल्ली से पूर्वांचल के मज़दूर लगभग भाग कर आए। ऑक्सीजन की कमी से अस्पताल में लोग मर गए। क्या ऐसी होती है सरकार?”

 

ज़ाहिर है कि मुद्दों की समझ उस लड़के को थी। आम लोगों की ज़रूरतों को भी समझ रहा था और  दुखों को निजी तौर पर भी महसूस कर रहा था। उसकी इस समझ ने बातचीत को जारी रखवाया। जानने की उत्सुकता हुई कि जब सबकुछ ख़राब है, तो फिर भी बाबा (योगी) बढ़िया कैसे हो गए। ये पहली बार था जब उत्तर देते हुए उसकी आवाज़ ज़ुबान पर रुकी। एकदम से कुछ सूझा नहीं। फिर बोला, “भैया! हम लोग बहुत कमज़ोर हो गए थे, और अगर ये सरकार नहीं रही तो मर ही जाएँगे। अब देखिए कैसे हमलोग चढ़े हुए हैं।”

 

यहाँ हम लोग का अभिप्राय समझना दुश्वार नहीं है। ख़ैर मैंने पूछ लिया, “इसका मतलब उन लोगों को कतारबद्ध करके मार दिया जाए तो खुश हो जाएँगे आप?” जवाब नकारात्मक था। “नहीं भैया ये ठीक थोड़ी है। ऐसा नहीं करना चाहिए लेकिन इन लोगों को बड़ा सिर पर चढ़ाया दूसरी सरकारों ने अब हमारी बारी है।” किसी और सवाल से पहले ही उसने काम का हवाला दिया और बाद में बात करने की बात कहकर चल दिया।

 

ये केवल एक सुल्तानपुर की कहानी नहीं है। लखनऊ से लेकर पूर्वांचल के किसी भी इलाक़े में आपको ऐसी बातें करने वाले बहुतायत में मिल जाएँगे। लखनऊ में जैनेश्वर मिश्रा पार्क, आंबेडकर पार्क, गोमती भँवर फ़्रंट पर घूमते हुए उसकी सुंदरता का ज़िक्र करिए तो साथ में बैठा स्थानीय शख़्स बोल उठेगा, “अखिलेश ने काम तो बहुत करवाया। हमारे लखनऊ को सुंदर बनाने का क्रेडिट उसी को जाता है।” तारीफ़ में दो लाईन और बोलिए तो बोलेगा, “अरे भैया! ये तो कुछ नहीं है। बाबा ने चौपट कर दी सब सुंदरता। पहले यहाँ भी लाइट जलती थी। ये फ़व्वारा जो बंद पड़ा है वो चलता था। लड़कियाँ आराम से घूमतीं थीं बिना किसी डर के। अभी माहौल थोड़ा गड़बड़ाया है।”

 

ये सब भरपूर कारण हैं किसी सरकार की आलोचना के, जो एक आम वोटर साफ़ मन से करता भी दिख रहा है। लेकिन आलोचना का ये सिलसिला बंद हो जाता है एक ही मुद्दे पर। “हमको बहुत दबाया गया। अब हमारी बारी है।”

 

ग़ौरतलब है कि जिस बात की नाराज़गी आम लोगों में पैदा की गई है वो दरअसल झूठी है। न तो किसी दल ने अल्पसंख्यक समुदाय को सिर पर बैठाया और न ही भारत का बहुसंख्यक समाज वृहत स्तर पर अल्पसंख्यकों से डर कर जीने को मजबूर हुआ। लेकिन रणनीति और मीडिया प्रबंधन के ज़रिए ये प्रौपैगेंडा आम लोगों के दिमाग़ में भर दिया गया।

 

बीजेपी की विरोधी पार्टियाँ छवि निर्माण के फ़्रंट पर कमज़ोर रहीं। अब भी मुद्दों पर ज़ोरदारी से बोलने का सामर्थ्य उनमें दिखता नहीं है। सुल्तानपुर के भदैया जनपद के अरुण मिश्रा कहते हैं, “राजनीति में शब्दों का संयोजन बहुत मायने रखता है। राहुल गाँधी मंदिरों के लाख चक्कर काटें लेकिन वो मनमोहन की उस बात का असर ख़त्म नहीं कर पाएँगे जिसमें मनमोहन ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है।”

 

“आज़ादी के बाद से कांग्रेस की सरकारों ने जिस तरह से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समाज को इकठ्ठा रखते हुए अपने हित और देश के हित साधे, वो प्रशंसनीय था। लेकिन अपने वक्तव्यों और छवि निर्माण की ग़लत तकनीकों ने बहुसंख्यक समाज के एक बड़े तबके को उनसे दूर कर दिया।” - बातचीत को आगे बढ़ाते हुए अरुण मिश्रा बोलते हैं, “जातीय प्रबंधन की सही समझ भी ज़रूरी है, ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश में। पिछले दिनों एक माहौल बना जिसमें ब्राह्मण समुदाय के लोग योगी के ख़िलाफ़ दिख रहे थे। ये अखिलेश के लिए सही मौक़ा था। ब्राह्मण समुदाय के किसी अच्छे जनाधार वाले नेता की पहचान की जाती और उसे कोई बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी जाती। लेकिन अखिलेश ने ऐसा नहीं किया। इस तरह के फ़ैसलों की छाप दिमाग़ पर लंबे समय तक रहती है। ब्राह्मण बीजेपी का कोर वोटर है। थोड़ा नाराज़ हुआ तो आप उसे अपने में मिला नहीं सके। हो सकता है नाराज़गी के होते हुए वो बीजेपी का साथ न छोड़े क्योंकि उसे अपने लिए और कहीं विकल्प नहीं दिखता।”

 

जातीय और धार्मिक विभेदों ने मुद्दों पर बढ़त बनाई हुई है। आम लोगों को मुद्दों की समझ है लेकिन सरकार चुनते हुए वो अपनी जातीय और धार्मिक पहचान को ही महत्व देंगे। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि विपक्ष के नेतागण ट्विटर इंगेजमेंट और जुलूसों में शामिल भीड़ से संतुष्ट हो रहे हैं। उनके पास अपनी कोई योजना नहीं दिखती। केवल एक योजना दिख रही है कि बीजेपी की तमाम बातों का 180 डिग्री पर विरोध। नई नीतियों और जनमानस की पकड़ के बिना तमाम मुद्दों के होते हुए विपक्ष के लिए डगर कठिन है।