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न्याय के मंदिर ने दिया झुग्गियां तोड़ने का फरमान, गरीबों को किस ‘मंदिर’ में मिलेगा आसरा?

 24 Sep 2020

इस समय महाराष्ट्र में बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत के मुंबई स्थित ऑफिस के एक हिस्से को तोड़े जाने का मामला काफी गर्म है। इसे लेकर देशव्यापी सियासत छिड़ी हुई है, नेशनल मीडिया तमाम जरूरी मुद्दों को छोड़कर सुबह से लेकर शाम तक इसी से जुड़े मुद्दे को कवर कर रहा है। लेकिन इसी बीच एक खबर दिल्ली में रेलवे पटरियों के किनारे बसे झुग्गियों को लेकर आई। रेलवे मंत्रालय ने फैसला किया है कि 14 सितंबर तक 48 हजार झुग्गियां हट जाएं वरना जबरदस्ती बुलडोजर चलवा दिया जाएगा। 

 

सुप्रीम कोर्ट ने तीन महीने पहले 48,000 झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने का फैसला सुनाते वक्त कहा था कि कोई भी अदालत इस फैसले पर स्टे नहीं देगी। मतलब साफ है कि 140 किलोमीटर लंबी रेल पटरियों के आसपास बनी झुग्गियां हटाई जाएंगी। दिल्ली की केजरवाल सरकार इस मामले में झुग्गी-झोपड़ी में रह रहे लोगों के साथ खड़ी है। पार्टी के विधायक व प्रवक्ता राघव चड्ढा ने कहा, जब तक केजरीवाल सरकार है झुग्गी वाले लोगों को परेशान होने की जरूरत नहीं है, उनका घर नहीं तोड़ने दिया जाएगा। 

 

झुग्गियों को तोड़ने से बचाने के लिए केजरीवाल सरकार द्वारा किए जा रहे दावे से बड़ा सवाल ये है कि आखिर इतने सारे लोगों के पुनर्वास को लेकर अभी तक प्रयास क्यों नहीं किए गए? न सिर्फ केजरीवाल सरकार बल्कि केंद्र की मोदी सरकार ने भी पुनर्वास को लेकर विचार करने से अधिक खाली कराने पर क्यों जोर दिया है? क्या केजरीवाल कोर्ट के आदेश के खिलाफ जाएंगे? आखिर कौन सा माध्यम होगा इसे रोकने के लिए? 

 

कुछ लोग सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर लोग रेलवे पटरियों के पास रह ही क्यों रहे हैं? पटरियां रहने की जगह थोड़ी होती हैं! उनकी इस बातों पर सहमति जताई जा सकती है लेकिन क्या कोई अपने मन से या शौक से पटरियों के पास रह रहा है? क्या उन्हें शौक है कि किसी दिन वो ट्रेन की चपेट में आकर कट मरें? नहीं। वह खुद के व अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं लेकिन उनके पास वहां रहने के सिवाय कोई दूसरा माध्यम नहीं है। 

 

पटरियों के बगल रहने को लेकर रहने वालों में अधिकतर लोग स्टेशन पर रोजगार के चलते रहते हैं। दूसरे वह हैं जो छोटा मोटा काम करते हैं। मूंगफली की रेहड़ी लगाने वाले संतोष बताते हैं कि शुरुआत में बिहार के सासाराम से यहां आया तो कमाई का कोई साधन नहीं था, जेब में पैसे भी नहीं, फिर लगा कि जीवन चलाने के लिए पटरियों के बगल रहना ही होगा। अब मूंगफली बेचकर इतना पैसा नहीं कमा पता कि किसी जगह कमरा लेकर उसका किराया भर सकूं। 

 

यही समस्या उमा की भी है, वह कहती हैं कि पति पहले सब्जी बेचते थे लेकिन एक दुर्घटना में पैर टूटने से वह भी अब कहीं नहीं जा पाते, बेटी 12 साल व बेटा 7 साल का है, उसकी जिम्मेदारी मुझपर ही है। अगर यहां से हटाया जाता है तो हमारे पास रहने की कोई जगह नहीं है, हमें वापस यूपी के मथुरा जाना होगा, जहां कमाई का स्त्रोत जीरो हो जाएगा। 

 

ये किसी एक परिवार की समस्या नहीं है बल्कि ये वहां रहने वाले अधिकतर लोगों की समस्या है, तमाम संसाधनों से दूर वह बस किसी तरह से अपने जीवन की गाड़ी को खींच रहे हैं, उन्हें आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना का हिस्सा तो बनना है लेकिन उनके पास खुद की निर्भरता का कोई साधन नहीं है। उनके पास तमाम मजबूरियां है उसका समाधान खोजने भी बैठते हैं तो उन्हें मौत नजर आती है। 

 

इस देश में मीडिया सेलेक्टिव मुद्दों को ही हवा देती है। पिछले 2 महीने से नेशनल टीवी पर ऐसे मुद्दों पर डीबेट होती रही जिसका आमजनमानस से सीधा जुड़ाव ही नहीं है। जनता इस दौरान बेरोजगारी, रोजगार, गिरती जीडीपी, कोरोना वायरस, किसानों की आत्महत्या व पुलिस की बर्रबरता को लेकर सोशल मीडिया पर आवाज उठाती रही लेकिन उसकी आवाज को कभी तवज्जो नहीं मिली। 

 

फिलहाल, इस समय झुग्गियों को तोड़े जाने से रोके जाने की जरुरत है। उससे भी अधिक लोगों के पुनर्वास की जरूरत है। देखना दिलचस्प होगा कि कौन इनके समर्थन में आता है और कौन इनके खिलाफ।

 

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