Article

6 बार माफीनामा लिखने वाले व अंग्रेजो से पेंशन पाने वाले सावरकर ‘वीर’ कैसे?

 24 Sep 2020

 

"वीर दामोदर सावरकर को सम्मान देना है तो गांधी की विचारधारा की तरफ अपनी पीठ करनी होगी। और अगर गांधी को स्वीकारना है तो सावरकर की विचारधारा को नकारना होगा। दोनों को एक साथ लेकर चलना लगभग असंभव है।"

 

हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व को राजनीति में प्रवेश दिलाने वाले विनायक दामोदर सावरकर की आज (28 मई) जयंती है। सावरकर भारतीय आधुनिक इतिहास की ऐसी शख्सियत हैं जिनका जब भी नाम लिया जाता है विरोध के सुर अपने आप तैयार हो जाते हैं। वर्तमान भाजपा सरकार सावरकर को लेकर जितना फिक्रमंद रही है कांग्रेस उतना ही विरोधी। बहुत मामलों में कांग्रेस और भाजपा एक छोर पर खड़े दिख जाएंगे पर जब बात सावरकर की हो तो दोनों पार्टियों दो अलग ध्रुव पर खड़ी दिखती हैं।

 

यह भी पढ़ें: मीडिया क्यों फैला रही है नफ़रत? - पार्ट-1

 

नासिक के भागपुर में 28 मई 1883 को जन्में सावरकर जब 7 साल के थे तो हैजे की बीमारी से इनकी मां और जब इनकी उम्र 16 साल थी तो प्लेग की महामारी से इनके पिता दामोदर पंत सावरकर की मौत हो गई। इसके बाद परिवार की जिम्मेदारी बड़े भाई पर आ गई। जिन्होंने परिवार को पूरी जिम्मेदारी के साथ सम्भाला और आगे बढ़ाया।

 

सावरकर के जीवन का सबसे बड़ा धब्बा महत्मा गांधी की हत्या में संलिप्तता को लेकर लगा। पुलिस ने सावरकर को गिरफ्तार किया उनसे पूछताछ की, हालकि वो सबूतों के अभाव में छूट गए पर उनकी जांच को लेकर बैठा कपूर आयोग और उसके जांच की रिपोर्ट की सूई कभी भी सावरकर से नहीं हटी।

 

यह भी पढ़ें: जिनके चेहरे लाखों के मशरूम खाने से चमकते हों उन्हें मरते गरीब मजदूरों की रोटी की फिक्र कहां!

 

राजनीति में हिदुत्व और हिन्दु राष्ट्रवाद को विस्थापित करने वाले विचारों को लेकर सावरकर को पुणे के फरग्यूसन कॉलेज से निष्काषित कर दिया गया। निष्कासन के 1 साल बाद उन्हें नासिक के कलेक्टर जैकसन की हत्या में सलिंप्तता के कारण लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर पर आरोप था कि उन्होंने लंदन से एक कलेक्टर की हत्या करने के लिए एक पिस्तौल अपने भाई को भेजी थी।

 

सावरकर अंग्रेजो को चकमा देने की कोशिश में लगे रहे उन्हें जब लंदन से फ्रांस के मार्से बन्दरगाह पर लगाया जा रहा था तो वह पोर्ट होल से समुद्र में कूद गए। उसके बाद तैरकर शहर की ओर दौड़ना शुरू कर दिया। पुलिस वालों ने उनका पीछा किया और पकड़ लिया।

 

यह भी पढ़ें: कोरोनावायरस- एक बीमारी, हजारों मौतें, बढ़ती चिंताए, सहमे लोग

 

सावरकर इसके बाद अंग्रेजो के कैद में चले गए, उनकी आजादी यहीं समाप्त हो जाती है। अगले ढाई दशक वह अग्रेजों के गुलाम रहे। 25-25 साल की दो सजाएं सुनाकर उन्हें भारत की किसी जेल में नहीं बल्कि भारत से दूर अंडमान यानी काला पानी भेज दिया गया। जहां सावरकर को एक छोटी सी कोठरी में रखा गया।

 

अंडमान की जेल में कैदियों को बड़ी यातनाएं दी जाती थी, उनसे कोल्हू के बैल माफिक काम लिया जाता था। नारियल को छीलकर उसमें से तेल निकालना होता था। उनसे सरकारी अफसरों की बग्घियों को खिंचवाया जाता था। जो नहीं खींच पाते थे उन्हें पीटा जाता था। खाना भी औसत ही दिया जाता था। जिससे वह जिन्दाभर रह सके।

 

सावरकर के अन्दर ये सब देखने के बाद शुरू में तो गुस्सा बढ़ा पर धीरे-धीरे वह समान्य हो गए और वहां से निकलने की तरकीबे सोचने लगे। 11 जुलाई 1911 को जेल पहुंचे सावरकर ने डेढ़ महीने बाद ही माफीनामा लिखा। अंग्रेजों ने उनके माफीनामें पर विचार करना उचित नहीं समझा। अगले 9 साल के भीतर सावरकर ने 6 बार माफीनाफा लिखा। माफीनामें उन्होंने लिखा

 

यह भी पढ़ें: कोरोना महामारी और दो हिस्सों में बंटा समाज 

 

'अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है तो मै यकीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहूंगा।'

 

जानकार बताते हैं कि जिस कोठरी में सावरकर को रखा गया था उसके ठीक नीचे बैरक में कैदियों को फांसी दी जाती थी इसका भी उनपर असर हुआ। साथ ही जेल में बन्द कैदी बरिद्र घोष बताते थे हैं कि सावरकर हम कैदियों को जेलर के विरुद्ध आन्दोलन करने को भड़काते तो थे पर जब उनके कहा जाता था कि आप भी साथ आईए तो वह पीछे हो जाते थे।

 

सावरकर के माफीनामे का असर ये हुआ कि जेल का प्रशासन उनपर अन्य कैदियों की तरह बर्बरता के साथ पेश नहीं आता था। इसको इस बात से पुख्ता किया जा सकता है जेल में सभी कैदियों का वजन 15 दिन में लिया जाता था। सावरकर जब जेल गए तो वह 112 पाउंड के थे और जब उन्होंने अपना चौथा माफीनामा दिया तो वह 126 पाउंड के थे।

 

यह भी पढ़ें: लॉकडाउन : प्रवासी मजदूरों को वापस बुलाने को लेकर इतना बेबस क्यों हैं सुशासन बाबू?

 

1920 में बाल गंगाधर तिलक और वल्लभ भाई पटेल के कहने पर ब्रिटिश कानून न तोड़ने और विद्रोह न करने की शर्त पर उन्हें रिहाई दे दी गई। सावरकर को ये सख्त हिदायत थी कि बिना रत्नागिरी के कलेक्टर को बताए आप कहीं बाहर नहीं जा सकते। सावरकर इसके बाद भारत आए और उन्होंने हिन्दुत्व पर ग्रंथ लिखा।

 

कहा जाता है कि अंग्रेज उन्हें 60 रुपए महीना पेंशन दिया करते थे। अंग्रेज उनको अपनी कौन सी सेवा के लिए ये पेंशन देते थे फिलहाल इसपर कुछ कह पाना संभव नहीं है। इस तरह की पेंशन पाने वाले वह अकेले शख्स थे।

 

हिन्दू और हिन्दूस्तान के लिए काम करने वाले सावरकर को हिन्दू महासभा ने 1937 में अपना अध्यक्ष बनाया, 1938 में उन्होंने इसे राजनैतिक दल घोषित कर दिया। अगले सात सालों तक वह महासभा के अध्यक्ष बने रहे। और स्वतंत्रता अदोंलनों मे लगे रहे। गांधी और सावरकर में वैचारिक मतभेद शुरू से ही रहे। वह गांधी की आजादी की लड़ाई के तरीकों से एकदम सहमत नहीं थे।

 

यह भी पढ़ें: कोरोना महामारी के दौरान भी जारी है एक्टिवस्ट्स को दबाने की मुहिम!

 

सावरकर की छवि को उस समय धक्का लगा जब उन्हें गांधी हत्याकांड में गिरफ्तार किया गया। उनके साथ 8 और लोगों को गिरफ्तार किया गया। जांच में ठोस सबूत न मिलने के कारण उन्हें बरी कर दिया गया पर इस धब्बे से वह अपने आप से कभी साफ नहीं कर पाए। यहां तक की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी उनसे पल्ला झाड़ लिया। 1966 तक वह जिन्दा रहे लेकिन समाजिक स्वीकार्यता कभी नहीं मिली।

 

भाजपा हमेशा सावरकर के साथ खड़ी रही। अटल बिहारी की सरकार ने सन 2000 में उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा पर तत्कालिक राष्ट्रपति केआर नरायणन ने सरकार के इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। 2014 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आए पीएम मोदी शपथ लेने के दो दिन बाद सावरकर के आगे शीश नवाते हैं जिधर मोदी जी की पीठ थी उधर महात्मा गांधी की तस्वीर लगी थी।